बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

विचार संस्कार और भावनाओं का परिमार्जन आध्यात्मिक जीवन

                                         

विचार संस्कार और भावनाओं का परिमार्जन आध्यात्मिक जीवन 
                     
आधात्मिक जीवन अस्वस्थ होने में नहीं , स्वस्थ होने में है . यह रोग में नहीं , आरोग्य में है .  पीड़ा में नहीं , प्रसन्नता में है . दमन में नहीं रूपांतरण में है . लेकिन इस मुखर सच को समझने वाले बहुत ही कम हैं . संख्या उनकी ज्यादा है , जो दमन को , स्वयम के प्रति अनाचार को अध्यात्म समझते हैं . ऐसे लोग स्वयम को भले ही कितना समझदार समझें , लेकिन हैं पूर्णत: नासमझ ही .

स्वामी विवेकानन्द के पास एक ऐसा ही अपने को समझदार समझने वाला नासमझ व्यक्ति आया . वह साधुवेश में था . बातों ही बातों में उसने बताया कि वह बाल ब्रह्मचारी है . उसकी सूखी , कृश देह और बुझा निस्तेज चेहरा यह बयान कर रहे थे कि उसने अपने शरीर पर बहुत अत्याचार किया है . स्वामी जी को उस पर बहुत दया आई . वे बोले _ ' अरे भाई ! शरीर को इतना सताने की क्या जरूरत पड़ गयी . ' स्वामीजी के इस कथन पर वह कुछ चौंक - सा गया , क्योंकि उसने दमन को त्याग , अस्वास्थ्य को आध्यात्मिकता , कुरूपता एवं विकृति को योग समझा था . उसने असौंदर्य साधने को ही साधना मान रखा था .

स्वामी विवेकानन्द उसके इस अज्ञान पर हंसे और बोले _ ' तुमने स्वयं को शरीर तक ही क्यों सीमित कर रखा है , शरीर सब कुछ नहीं है . शरीर कुछ है , और कुछ ऐसा भी है , जो शरीर के पर एवं परे है . शरीर को न भोगी बनने देना है और न रोगी . न तो शरीर को उछालते फिरना है और न उसे तोड़ते फिरना है . देह तो बस गेह है , आत्मा का आवास है , उसका स्वस्थ और अच्छा होना आवश्य
आध्यात्मिक जीवन स्वास्थ्य का विरोधी नहीं है . वह तो परिपूर्ण स्वास्थ्य है . वह तो एक लययुक्त , संगीतपूर्ण सौन्दर्य की स्थिति का पर्यायवाची है . शरीर तो बस उपकरण है ; अपना अनुगामी है . तुम जैसे बनते हो , वह वैसा बन जाता है . आध्यात्मिक जीवन का मतलब शरीरिक दमन नहीं , बल्कि विचार , संस्कार और भावनाओं का परिमार्जन , परिवर्तन एवं रूपांतरण है .&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&