रविवार, 15 सितंबर 2013

दुरितानि परासुव

 बडभागी जो मानुष तन पावा 


' दुरितानि परासुव ' का अर्थ है कि हम अपने दुर्गुणों को दूर कर दें . मनुष्य के भाव उचित होने चाहियें . दुःख की बात है कि मनुष्य दुष्प्रवृत्तियों की कामना के कारण रोगी होता जा रहा है . वासनाएं जीर्ण नहीं होती , अपितु हम ही जीर्ण हो जाते हैं _ ' वासानि न जीर्णा: वयमेव हि जीर्णा: ' .

भक्त और भगवान की स्थिति भी अत्यंत विचित्र है . भक्त कहता है कि प्रभु उसे स्वीकार करें ; पर भगवान कहता है कि भक्त अपनी दुष्प्रवृत्तियों का त्याग कर दे . मनुष्य योनि में जन्म लेना बहुत ही सौभाग्य की बात है . तुलसीदास जी ने कहा है _ ' बडभागी जो मानुष तन पावा ' . मनुष्य योनि न जाने कितने जन्मों का परिणाम होती है . अनेक जन्मों में घूमने के बाद यह तन प्राप्त होता है . 84 लाख योनियों के बाद ही यह शरीर मिलता है . हमें सदैव सत्कर्म करते रहना चाहिए .

संसार का कोई पतित से भी पतित मनुष्य भी ऐसा न मिलेगा , जिसमें सब दुर्गुण ही दुर्गुण हों और कोई भी सद्गुण न हों . इसी प्रकार विरल ही महापुरुष होंगे जिनमें मात्र गुण ही हों और कोई दुर्गुण न हों . देवों का ही जीवन ' सत्यं वै देवा: ' का पूंजीभूत रूप होता है . मनुष्य को तो ' असतो मा सद्गमय ' का सदैव प्रयास करते रहना चाहिए .

मनुष्य को सत्य संकल्प को धारण करना चाहिए , उसकी चिन्तन की दिशा सही होनी चाहिए . जब सत्य-संकल्प होंगे तो विचार भी शुद्ध होंगे और शुद्ध विचार शुद्ध-बुद्ध आचरण का सम्बल बनता है . साथ ही मनुष्य का जीवन दोष-रहित होना चाहिए . साथ ही प्रत्येक व्यक्ति को सद उपदेश का पालन एवं प्रचार भी करना चाहिए . इससे अपने साथ -साथ दूसरों का मन भी निर्मल एवं पवित्र बनता है . 


मनुष्य एक विचाशील प्राणी है . उस पर अच्छे -बुरे संस्कारों का प्रभाव अवश्य ही पड़ता है . संसार को सन्मार्ग पर लाने के लिए मनुष्य का पवित्र कर्त्तव्य है कि वह शुभ विचारों का संदेश दूसरों को देता रहे . अस्तु कहा गया है कि मनुष्य चिन्तना के साथ सदैव आगे बढ़ता रहे और यही सच्ची प्रगति है . वास्तव में ' दुरितानि परासुव ' की भूमिका के बाद ही ' भद्रं तन्न आसुव ' की स्थिति प्रारम्भ होती है .&&&&&&&&






दान देने वाले का अक्षय कल्याण

दान का महत्त्व 




यह प्रभु का अटल नियम है कि दान देने वाले का अक्षय कल्याण होता है _ ' दाशुषे भद्रं करिष्यसि तव इत तत सत्यम ' . यह प्रसिद्द कथन है कि घर - घर मांगने के लिए घूमते भिखारी शिक्षा देते फिर रहे हैं कि मांग नही रहे . वे कहते हैं कि संसार के सम्पन्न लोगों ! जो तुम्हारे पास है , उसका नित्य दान करो . यदि नहीं दोगे तो तुम भी हमारी तरह घर -घर जाकर हाथ फैलाओगे .




प्रभु ने मृत्यु का कारण केवल भूख को ही नहीं बनाया है , अपितु जो भरपेट खाते हैं , वे भी मरते हैं . देने वाले का धन नष्ट नहीं होता , अपितु वह एक प्रकार से उसकी भविष्य - निधि में जमा होता है . स्मरण रखो कि बिना त्याग किए तुम अपने हितैषी नहीं बना सकते .


संसार त्याग से चलता है . जहाँ इसमें विराम हुवा कि संसार का विनाश हुवा . इसलिए इस पवित्र नियम को भंग करने वाले व्यक्तियों को वेद आदि शास्त्रों में राक्षस और समाज का शत्रु बताया है . यथा _ स्वार्थी और अविवेकी व्यर्थ ही अन्न ग्रहण करता है . तथ्य है कि यह उसका जीवन नहीं है , अपितु मृत्यु है . क्योंकि इस प्रकार का घोर स्वार्थी न अपना भला करता है और न मित्रों का . केवल अपने ही खाने - पीने का ध्यान रखने वाला अन्न नहीं खाता , पाप खाता है _ ' केवलाघो भवति केवलादी ' .



गीता में कहा गया है कि इस यज्ञ - चक्र को जो नहीं घुमाता , अर्थात जो भोग के साथ त्याग नही करता , वह पापी और विषयी है तथा उसका जीवन ही व्यर्थ है . वास्तव में खाना उसी का उचित है जो घर आये भूखे को अन्न देकर स्वयं खाता है और वह संसार में अपने मित्र बना लेता है .



प्रभु ने इस संसार को यज्ञ के साथ उत्पन्न किया है और वेद में उपदेश दिया है कि तुम यज्ञ के भाव और कर्म से ही फूल और फल सकते हो . तथा यह यज्ञ ही तुम्हारी सब कामनाएं पूर्ण करेगा . जड़ - जगत भी यज्ञ के आधार पर ही चल रहा है . पृथ्वी से उत्पन्न अन्न और ओषधियों की हम यज्ञ की अग्नि में आहुति देते हैं . अग्नि में डाली हुयी आहुति को सूर्य अपनी किरणों के द्वारा मेघ में परिवर्तित करता है . बादलों से वृष्टि होती है और वर्ष से अनंत ओषधियाँ और फूल - फल उत्पन्न होते हैं . जैसा कि महर्षि मनु ने कहा है _
' अग्नौ प्रास्ताहुति: तावदादी त्यमुप्तिष्ठते . आदित्यात जायते वृष्टि: वृष्ट्या अन्नं तत: प्रजा: .. '

अग्नि में डाली हुयी आहुति आदित्य को पहुँचती है . सूर्य से बादल बनकर वर्षा होती है . वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है और उस अन्न से जीवों का पालन- पोषण होता है . यह चक्र यदि इसी प्रकार घूमता रहता है तो संसार ठीक चलता रहता है . साथ ही जब कभी भी इसमें अवरोध उत्पन्न होता है तो वहां अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है .

यही बात हमारे संसार-चक्र पर भी पूरी घटती है . हमारे प्रत्येक कार्य में समाज का सहयोग प्राप्त होता है . उसी प्रकार हमें भी दूसरों के कार्यों में अपनी शक्ति और क्षमता के अनुसार त्याग के लिए उद्यत रहना चाहिए . यदि अपना ही सुख और अपना ही हित देखा और इसी की प्रतिक्रिया दूसरों पर भी वैसी हुयी तो यह संसार नरक बन जायेगा .


मंगलमय प्रभु जीव - मात्र का कल्याण करता है , किन्तु अक्षय - कल्याण दानशील का होता है .*****





मनन से मुनि और मुनि से मौन बना

मनन से मुनि और मुनि से मौन बना है 


मनन से मुनि और मुनि से मौन बना है . मौन- व्रत के साथ मन की चंचलता पर नियंत्रण जरूरी है . मौन एक मानसिक साधना है . मौन के द्वारा मनुष्य को अंतर जगत में प्रवेश करने का अवसर मिलता है . इसमें मुख से कुछ न बोलते हुवे इन्द्रियों पर विजय पाने का प्रयास किया जाता है . क्योंकि इन्द्रियों पर विजय पाए बिना सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती . मुख को बंद कर लेना ही मौन नहीं होता . वाणी- संयम के साथ - साथ आचार - विचार का संयम भी अनिवार्य है . मनोयोगपूर्वक किया गया मौन मानसिक शांति तथा आध्यात्मिक उत्कर्ष प्रदान करता है . मौन की साधना दया , सत्य , अहिंसा , ब्रह्मचर्य , परोपकार जैसे गुणों के आधार पर होती है .

साधना के लिए मौन अनुपम निधि है . इसके द्वारा प्रभु से संवाद उत्पन्न किया जा सकता है . भय से उत्पन्न मौन जड़ता का प्रतीक है , किन्तु संयम जन्य साधना में मौन साधक का भूषण है . श्री कृष्ण ने गीता में मौन को विभूति के रूप में स्वीकार किया है . उन्होंने कहा है कि गुप्त रखने योग्य भावों में स्वयं को मौन के रूप में स्वीकृति प्रदान की है .

' महाभारत ' के लेखन में गणेश जी की तन्मयता देखकर व्यास जी पुलकित थे . जब ग्रन्थ पूर्ण हो गया तो व्यास जी ने पूछा _ ' गणेशजी , आपने ग्रन्थ - लेखन कार्य में मौन - व्रत क्यों धारण कर लिया था . ' गणेशजी ने बताया _ ' यदि मैं बोलता तो महत्त्वपूर्ण कार्य जल्दी पूर्ण नहीं होता . ' तात्पर्य यह है कि मौन रहकर गणेशजी ने ' महाभारत ' जैसा विशाल ग्रन्थ लिखने में सफलता पाई .

मौनव्रत आत्म- कल्याण के लिए किया जाता है . और जन कल्याण के लिए भी . बहुत से लोग मौनव्रत के माध्यम से अपनी संकल्प - बद्धता को को दिशा प्रदान करते हैं . मों एक उत्तम साधना है इसके माध्यम से व्यक्ति ऊंचे शिखर तक पहुँच सकता है . मौन की महत्ता को प्रतिपादित करते हुवे महाकवि दिनकर ने कहा है _ ' वाणी का वर्चस्व यदि रजत है तो मौन कंचन है . '

मौन को सर्वाधिक महत्त्व ' watch ' शब्द के द्वारा प्रस्तुत किया गया है . यह शब्द ' w ' से ' watch your words ' के लिए कहता है . इसके बाद ही ' action , thought , character , habits आदि का स्थान आता है . अत: मौन की ही सर्वाधिक प्रतिष्ठा है .***************












शुद्ध बन कर ही बुद्धत्व की प्राप्ति

चिन्तन और कर्म से शुद्ध बन कर ही बुद्धत्व की प्राप्ति 


कर्म का सम्बन्ध कामना से होता है .  जो व्यक्ति सत्य का ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो वही उसको प्राप्त कर लेता है . समस्त अन्नादि पदार्थों का दाता वह प्रभु ही है , साथ ही उसी आनन्दस्वरूप से ही आनन्द का प्रसाद मिल सकता है . वह प्रभु जिस भक्त को वरणीय समझता है , उसे वह उस भक्त के ह्रदय में दर्शन देता है . 

जाति आयु और भोग का निश्चय कर्मानुसार होता है _ ' सतिमूले तदविपाको जात्यायुर्भोगा : ' . कर्म का फल प्रभु की व्यवस्था से मिलता है . दो _ जीव और ईश्वर चेतनता एवं पालन आदि गुणों में समान हैं . ये दोनों प्रकृतिरूपी वृक्ष पर बैठे हुवे हैं . इनमें से एक जीव उस वृक्ष के स्वादु फलों को भोगता है और दूसरा ईश्वर न खाता हुवा फल की व्यवस्था करता है .

वेद और  शास्त्र मनुष्य को निष्काम कर्म का आदेश देते हैं . ' कर्मण्येव अधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ' अर्थात मनुष्य का अधिकार कर्म करने तक है , फलों में कदापि नहीं . मन बहुत चंचल होता है . वह स्थिर नहीं बैठ सकता . मन थक जाये तो बात बन सकती है . थकान कर्म करने से आती है . मन का थकना ही उसका स्थिर होना है . जब मन स्थिर होता है तो वह शांत हो जाता है . शांत मन निर्मल और निर्विषयी होता है . निर्विषयी मन कामना रहित हो जाता है और यही सुख-दुःख और जीवन-मृत्यु का कारण बनता है .

निष्काम कर्म शुद्ध और बुद्ध मन से ही सम्भव है .   कामना और वासना सदा क्रीडा करती रहती है . जो इन पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करता है , वह ही सत्य ही नहीं अपितु परम सत्य को प्राप्त कर लेता है . प्राप्ति में भी योग्यता होती है . पात्रता से ही प्राप्ति होती है . पात्र बनने के लिए अपने को संस्कारित करना पड़ता है . चिन्तन और कर्म से शुद्ध बन कर ही बुद्धत्व की प्राप्ति सम्भव है . जो सत्य का ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो  वह असत्य की परिधि से बाहर हो जाता है .*******************


द्रवै स्रवे पुलकै नहीं , तुलसी सुमिरत नाम

प्रभु पर भरोसा 


प्रभु पर और स्वयं अपने पर विश्वास व भरोसा रखना चाहिए . विश्वास ही वह माध्यम है , जिससे सकारात्मक सोच उत्पन्न होती है . विश्वास ही प्रगति का सूचक और ध्येय की ओर ले जाने वाला है . सकारात्मक सोच मनुष्य को आस्था से जोड़ती है और यह आस्था ही उसे स्वयं से जोड़ती है . विश्वास ही फलदायक होता है .

प्रभु पर भरोसा उसके गुणों के कारण ही किया जाता है . इसी कारण उसकी उपासना और स्तुति भी की जाती है . वह प्रभु ही श्रेष्ठ मित्र के समान हित साधक तथा प्रिय है . वह सबसे अधिक प्रेम करने योग्य है . वह निरंतर व्यापक है . वही जानने योग्य और हृदयरूपी वेदी में ध्यान करने योग्य है . वह सर्वाधार एवं प्रकाशस्वरूप है . भक्तों के भावावेश की स्वर-लहरी में जब फूटकर बाहर प्रकट होती है , तो वे साम बन जाती हैं . उपासना और संगीत का गहरा सम्बन्ध है , अर्थात जो मनोदशा एक गायक की संगीत के गाने के समय होती है , तो ठीक वही स्थिति भक्त की भी उपासना में प्रभु-स्मरण के समय होनी चाहिए .

गोस्वामी तुलसीदास ने उपासक की दशा का चित्रण अनुपम रूप में किया है _
                      ' हिय फाटउ फूटऊ नयन , जरउ सो तन केहि काम .
                      ' द्रवै स्रवे पुलकै नहीं   , तुलसी सुमिरत नाम           .. '



वह ह्रदय फट जाये जो प्रभु का नाम लेते ही द्रवित नहीं होता . वे आँखे फूट जाएँ जो भगवान को याद करने पर प्रेम के झरने नहीं बहातीं . वह शरीर जो उसका नाम लेते ही पुलकित नहीं होता उसका भस्म हो जाना ही उचित है .

प्रभु का शुद्ध स्वरूप समझे बिना मनुष्य में विचार और आचार की पवित्रता नहीं आ सकती . स्वार्थ-सिद्धि के लिए प्रभु-भक्ति संसार में प्राय: होती है , किन्तु प्रभु के स्वरूप को समझकर अपने कर्त्तव्य का निष्ठा से पालन वही कर सकता है , जो संसार में सर्वत्र अनुभव करता है . और यह अनुभव भरोसे एवं विश्वास के आधार पर ही हो सकता है .&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&

आहार से बेहतर प्रत्याहार

योग एक समाधान __आहार से बेहतर प्रत्याहार 

योगऋषि पतंजलि द्वारा कही गयी हर तकनीक अपने स्वरूप , प्रभाव एवं इनकी विधि-व्यवस्था से क्रमिक रूप से जुड़ी हुयी है , जैसे की प्राणायाम का सम्बन्ध रक ओर आसन से है ; तो दूसरी ओर प्रत्याहार से है . जो व्यक्ति शरीर से स्थिर एवं दृढ़ नहीं है , वह प्राणायाम की गहनता का स्पर्श नहीं कर सकता . इसी तरह जिसने प्राणायाम की प्रक्रिया के द्वारा नाड़ियों के मल का शोधन नहीं किया , चित्त के आवरण को क्षीण नहीं किया , वह प्रत्याहार के योग्य नहीं हो सकता .

प्रत्याहार के लिए मन का धारणा योग्य बन जाना जरूरी है ; क्योंकि ऐसा मन इन्द्रियों की शक्ति को स्वयं में पुनर्लीन करने में समर्थ है . इसी सत्य का संकेत स्पष्ट है _ प्राणायाम  के प्रभाव मन धारणाओं के योग्य हो जाता है . मन धारणा के योग्य बन सके , यह काम आसान नहीं है . ऊपरी तल पर विचारों की अगणित लहरों से मन चंचल रहता है . थोड़ा गहरे में यादों व आग्रहों के ढ़ेर लगे रहते हैं . इनसे भी गहराई में संस्कारों व कर्म-राशि की परत हैं . ये सभी चित्त में आवरण बन छाये हुवे हैं . इनमें से बहुत सी चीजें प्रकृति में एक दूसरे से समान भी हैं और विरोधी भी . ऐसे में जब भी किसी उपयुक्त एवं औचित्यपूर्ण विचार , भावना एवं या छवि को धारण करने की कोशिश की जाती है , तो इन सबमें यदि एक हिस्सा उसका समर्थन करता है तो अनेक हिस्से इसके विरोधी हो जाते हैं . ऐसी स्थिति में विचार , भावना या छवि की धारणा का मन में टिक पाना कठिन और प्राय: असम्भव हो जाता है .

प्राणायाम की प्रक्रिया से उत्पन्न हुयी परिष्कृत स्थिति में यह अवरोध बहुत न्यून हो जाता है ; यहाँ तक कि चित्त इन्द्रियों की शक्तियों को पुन: वापिस बुलाने की सामर्थ्य पा लेता है . इसी की चर्चा महर्षि ने अपने अगले सूत्र में की है _  ' स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इव इन्द्रियाणाम प्रत्याहार: '  अर्थात अपने विषयों के सम्बन्ध से रहित होने पर , जो चित्त के स्वरूप में तदाकार - सा हो जाता है , वह प्रत्याहार है . स्पष्टत: प्रत्याहार का तात्पर्य है कि इन्द्रियों की शक्तियों का स्रोत में वापिस लौट आना . यह मन की उस क्षमता की पुनर्स्थापना है , जिससे बाह्य विषय - जनित विक्षेपों से मुक्त हो इन्द्रियां वश में हो जाती हैं .

महर्षि के इस सूत्र में योग-साधना में आने वाली बाधाओं और उत्पन्न होने वाले विक्षेपों का समाधान है . जब तक बाहरी विक्षेपों से पीछा नहीं छूटता , न तो अंतर्यात्रा सम्भव है और न अन्तश्चेतना के गर्भ में प्रवेश . यह कुछ ऐसी बात हुयी जैसे कि कोई ध्यान कर रहा है , लेकिन उसका मोबाईल फोन भी उसी कक्ष में है . अब वह बार-बार बजेगा , तो ऐसी स्थति में ध्यान करने के लिए उसे वहां से उसे हटाना होगा . यह तो बस एक उदाहण है . हमारे अपने आस-पास ऐसी कितनी लाखों चीजें चल रही हैं . जब भी हम साधना करने की कोशिश करते हैं , मन का एक हिस्सा एक काम करने की सलाह देता है , तो दूसरा हिस्सा उसी समय किसी दूसरे काम को जरूरी बताने लगता है .

मन का यह भटकाव तभी रुकना सम्भव है जब मन का उन संस्कारों , विचारों एवं वादों से पीछा छूटे , जो कि इन्द्रियों के विभिन्न विषयों में रस ले रहे हैं . यह रसासक्ति किसी प्रतिज्ञा या संकल्प से नहीं जाती . यह तो बस मन के परिष्कृत होने पर जाती है . वह जाती है मन में भगवान के प्रति प्रेम एवं भक्ति के उत्पन्न होने से . ऐसा न हो सका तो बचपन हो या जवानी अथवा बुढ़ापा , बात एक ही बनी रहती है . कभी तो मन में स्वाद ललचाता है , तो कभी किसी रूप में उलझता है , तो उसे कोई गंध खींचती है तो कभी उसे किसी के शब्द आकर्षित करते हैं . इस खींच - तान भरी स्थिति में न तो साधना सम्भव है और न किसी उच्चस्तरीय सत्य की धारणा .

यह तो तभी सम्भव है , जब इन विक्षेपों से पीछा छूटे . इसके लिए मन को ' प्रत्याहार ' की क्षमता पानी होगी . गुरुदेव के शब्दों में कि कोई राज्यपाल किसी प्रदेश में तभी तक राज्यपाल रह सकता है , जब तक उसे राष्ट्रपति का विश्वास प्राप्त है . यदि राष्ट्रपति अपनी शक्ति उससे छीन ले तो वह सामान्य व्यक्ति से अधिक और कुछ भी नहीं . यही स्थिति मन और इन्द्रियों की है . मन की शक्तियों से ही इन्द्रियां शक्ति-सम्पन्न हो विक्षेप उत्पन्न करती हैं . यदि मन अपनी शक्ति को वापिस लौटा दे तो फिर इनके विक्षेप निरर्थक हो जाते हैं ; लेकिन यह तभी सम्भव है , जब मन का रस , मन की आसक्ति थोड़ी उन्नत , उच्स्तरीय एवं ईश्वरीय हो . यह कहने - समझने से नहीं होता . इसके लिए अनुभव आवश्यक है . तप एवं योग के प्रयोग से मन जैसे-जैसे स्वच्छ होता जाता है , वैसे-वैसे उसका इन्द्रियों से एवं इन्द्रिय - विषयों से रस जाता रहता है . भगवान के स्मरण एवं भक्ति से भी यह स्थिति बनती है . जीवन के कटु - कठिन अनुभव भी यदा-कदा अन्तर्विवेक को जगा देते हैं . अनुभव बता देते हैं कि संसार एवं संसारिकता में अटकना - भटकना व्यर्थ है . इसमें ठोकरों , चोटों के सिवाय और कुछ भी नहीं . जीवन की सच्चाई यही है कि इन्द्रिय - विषयों को कोई अपनी मर्जी , संकल्प या  प्रतिज्ञा से नहीं छोड़ पाता . मन की अवस्था के बदलते ही ये स्वत: छूट जाते हैं .

इन बाहरी विक्षेपों का इस तरह त्याग हो जाने पर योगसाधक स्वयं प्रत्याहार के योग्य हो जाता है . अब बाहर के संसार  में उसे रस नहीं रह जाता . तब वह हजारों दिशाओं एवं हजारों चीजों के पीछे भागता नहीं है . अपने प्रिय परमेश्वर के स्वरूप में , साथ ही अपने आत्मस्वरूप में उसकी सारी रसासक्ति केन्द्रित हो जाती है . स्वयं में लय होने की आकांक्षा अन्य सारी आकांक्षाओं का स्थान ले लेती है . फिर सारी भटकन - अटकन एवं उलझन के फंदे स्वत: ही टूट जाते हैं .*****

रोग-मुक्त होने की अंतर यात्रा

पञ्च कोषीय यात्रा  


पंच कोषीय यात्रा से तात्पर्य __ शरीर एवं आत्मा में स्थित पंच कोषों की यात्रा से है .ये कोष क्रमश: 
_  अन्नमय कोष , प्राणमय कोष , मनोमय कोष , विज्ञानमय कोष एवं आनन्दमय कोष हैं .  इस यात्रा हेतु शवासन अथवा ध्यान में बैठा जा सकता है .

सर्वप्रथम अन्नमय कोष है . एकरूप से यह सम्पूर्ण शरीर का ही पूर्ण रूप है . यह स्थूल शरीर की सूक्ष्म यात्रा है . इसके अंतर्गत स्थूल शरीर को मन की आँखों द्वारा देखा जाता है . इसमें देखना होता है कि शरीर कैसा है ? और इसमें क्या-क्या तत्व हैं ? शरीर के ऊपर रोयें या बाल हैं फिर त्वचा की सात परते हैं और उसके नीचे मांस , चर्बी हड्डियाँ हैं . इसके साथ ही नीली , लाल व सफेद नाड़ियाँ हैं ; जिनकी संख्या ७२००० से ऊपर है . इन नाड़ियों के कार्य भी भिन्न - भिन्न हैं . मुख्य रूप से धमनी , शिरा एवं सुषुम्ना हैं . धमनियां रक्त को ह्रदय से सम्पूर्ण शरीर में पहुंचाती हैं तथा शिराएँ रक्त को शरीर से वापिस ह्रदय को पहुंचाती हैं एवं शरीर से मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं .

इसी प्रकार पाचन प्रणाली से सम्बद्ध अंग पाचन का कार्य करते हैं . 10 मीटर लम्बी अंत: वाहिनी नली में आहार , अमाशय , छोटी आंत , बड़ी आंत व मलाशय आते हैं . उसके साथ ही हमारे शरीर में में स्थित ग्रन्थियां भी पाचन कार्य के सहायक होती हैं . ये ग्रन्थियां नलिका युक्त व नलिका विहीन दोनों ही  तरह की होती हैं . जैसे पैनक्रियाज , लीवर , गालब्लेडर , एडरीनल ग्लेन्ड , थायराइड ग्लेन्ड , पेराथायी ग्लेंड्स आदि . इनमें से कुछ पाचन में सहायक हैं और कुछ हारमोंस बनाते  हैं एवं शरीर को संतुलित करते हैं तथा हमें रोग-मुक्त रखते हैं .

साथ ही श्वसन प्रणाली को देखना चाहिए . स्वर-तंत्र व फेफड़े में इतने कोष हैं कि अगर उन्हें पृथ्वी पर बिछाएं तो दो बीघे घेर लेंगे . ये ही कोष रक्त को आक्सीजन युक्त करते हैं व कार्बन डाई आक्साइड मुक्त करते हैं . यही कोष छोटी-छोटी साँस लेने के कारण मृतप्राय हो जाते हैं . इन्हें सक्रिय करने के लिए हमें गहरे - लम्बे सांस लेने चाहियें .

इसी प्रकार विसर्जन प्रणाली , पाचन प्रणाली , प्रजनन प्रणाली , स्नायु प्रणाली आदि का अवलोकन करना चाहिए . इसके बाद श्वेत एवं लाल कणिकाओं को देखना चाहिए . अनन्तर मेरु दंड की 33 गोटियों निहारें एवं शरीर की 206 हड्डियों को तथा इनके जोड़ों को निहारना चाहिए . यह भाव मन में रखें कि यह शरीर वास्तव में मेरा नहीं है और मुझे बस प्रयोग करने के लिए ही मिला है . फिर भी मैं कौन हूँ , कहाँ से आया हूँ और मेरा क्या ध्येय है इस पर विचार करना चाहिए . यह स्थूल शरीर जो अन्न द्वारा पोषित है तथा यह पंच भूतों एवं स्थूल इन्द्रियों से निर्मित हुवा है . वस्तुत: यह शरीर नश्वर है . यही प्रथम अन्न कोषीय यात्रा है .

इसके बाद द्वितीय प्राणमय कोष की यात्रा प्रारम्भ होती है . हमारा मस्तिष्क आदेश देता है कि पैर की अंगुलियाँ एवं हाथ की अंगुलियाँ धीरे-धीरे हिलाओ . अब समझें एवं सोचें कि यह आदेश किसे दिया गया ? यही प्राण है और इससे ही अंगुलियाँ हिलनी शुरू होती हैं . खोजें कि शरीर में प्राण कहाँ हैं . वास्तव में हमारा सम्पूर्ण शरीर ही प्राणमय है . इसे तेजस भी कहा गया है . इससे ही शरीर गतिमान होता है . यही प्राणमय कोष है . इसे कर्मेन्द्रियों  को वश में करके ही साधा जा सकता है .

इसके बाद तृतीय कोष मनोमय कोष की यात्रा की जाती है . देखें कि हमारे नाक , कान , आँख , रसना एवं त्वचा हमें शांत नहीं बैठने दे रही हैं . ये ही ज्ञानेन्द्रियाँ शक्तिस्वरूपा हैं तथा इन्हें साधने का प्रयास करना चाहिए . यहाँ अपने मन को देखें . यहाँ विचारों का आदान-प्रदान होता है . धीरे-धीरे यह कम होना प्रारम्भ होगा और फिर शांत होता चला जायेगा . यह मन एकाग्रचित्त और निर्विचार होता चला जायेगा . यहो मनोमय कोषीय यात्रा है .

सधते ही हम सूक्ष्म शरीर से आगे बढ़ेंगे . यह सुषुप्ति की अवस्था है . प्राण होते हुवे भी शरीर शांत है . सांसे भी सूक्ष्म हो जाती हैं . यही विज्ञानमय कोषीय यात्रा है .अब चतुर्थ कोष विज्ञानमय कोष की यात्रा करनी चाहिए .  यह सोचना चाहिए की मेरा स्थूल शरीर शांत , और मन अर्थात सूक्ष्म शरीर भी शांत है . पर मेरी बुद्धि , जो सही - गलत का निर्णय लेती है वह शांत नहीं है . यह अहंकारयुक्त और संशय से भरी हुयी है . इसे भी साधना चाहिए . इसके 

अंतिम पांचवां कोष आनन्दमय कोष है . इस यात्रा में शांति ही शांति है तथा परम सुख का भाव है . यहाँ आनन्द का भाव ही शेष रह जाता है . यह सच्चिदानन्द स्वरूप है ; सत्य- चित - आनन्द का भाव ही वर्तमान रहता है . यहाँ आकर सब कुछ शांत होने लगता है  . यही आनन्दमयी कोष यात्रा  है .

धीरे-धीरे इस स्थिति में पहुँचने पर मन ही मन ॐ की ध्वनि पांच या सात बार करनी चाहिए . इसके बाद अपने स्थूल शरीर को धीरे - धीरे हिलाकर कुछ देर शांत बैठ कर परम आनन्द की प्राप्ति की जा सकती है .********