शनिवार, 14 सितंबर 2013

मन शांत नहीं तो कहीं शांति नहीं

मन शांत नहीं तो कहीं शांति नहीं  


प्रभु कृपा से हम इतना समझते हैं और स्वीकारते हैं तथा मानते हैं कि हमें शांति चाहिए ; अशांति को किसी भी रूप में हम नहीं चाहते हैं . हमें संसार में भी शांति चाहिए और मन में भी शांति चाहिए . शांति में हम अनुकूलता तथा अशांति में हम प्रतिकूलता का अनुभव करते हैं . अनुकूलता होने पर हमें सुख होता है एवं प्रतिकूलता होने पर दुःख होता है . बाहर की अशांति हमारे मन में भी अशांति पैदा करती है पर परिणामत:  हम दुखी हो जाते हैं . 


बाहर की अशांति के कारण मन में अशांति उत्पन्न होती है . अत:हम बाहर की अशांति को ठीक करने का यथासम्भव  प्रयास करते हैं . बाहर की अशांति को हम कुछ कम भी कर पाते हैं . परिणामत: अंदर स्थित मन की अशांति भी कुछ कम हो जाती है . इस प्रकार के प्रयत्न व अनुभव से हमें निश्चित हो जाता है कि बाहर की अशांति के कारण हमारे अंदर की अशांति उत्पन्न होती है और बाहर की अशांति भी कम या समाप्त होने पर अंदर की अशांति भी कम या शांत हो जाती है . इस प्रकार हम बाहर की अशांति - शांति और अंदर की अशांति - शांति में कारण- कार्य सम्बन्ध समझ लेते हैं . परिणामत: इसी पर केन्द्रित होकर अशांति हटाने व शांति पाने के प्रयास में लगे रहते हैं और ऐसा प्रयास सहज एवं स्वाभाविक भी है .
इस निश्चय व यत्न से हमें सफलता मिलती रहती है , किन्तु यह सफलता सीमित मात्र में मिलती  है . हमारी अशांति का कारण मात्र बाह्य अशांति ही नहीं होती . हम अपनी असमर्थता , अकुशलता , अल्पज्ञता , आलस्य , उपेक्षा आदि के कारण भी अशांत और दुखी होते रहते हैं . इनसे होने वाली अशांति कम नहीं होती , बहुत अधिक होती है . हम इनके कारण न केवल बाह्य अशांति के बिना भी अशांत होते रहते हैं , बल्कि बाह्य अशांति से होने वाली अशांति को कई गुना बढ़ा भी लेते हैं . हम बार-बार उन्हीं बाह्य विषयों को विचरते रहते हैं और बार-बार अशांत होते रहते हैं .

बाह्य अशांति को हम अपने प्रयास से कुछ दूर कर पाते हैं , पर पूरी तरह से नहीं . बाह्य अशांति को हम पूरी तरह समाप्त कर भी नहीं कर सकते . बाह्य अशांति का कारण अन्य व्यक्ति भी होते हैं , जिन पर हम पूर्ण नियंत्रण - नियमन भी नहीं कर सकते . लोग पुन:-पुन: अशांति का कारण बनते ही रहेंगे , किन्तु आंतरिक अशांति को हम पूरी तरह समाप्त कर सकते हैं , क्योंकि इसका मुख्य कारण हम स्वयं हैं . यदि हम चाहें तो आंतरिक अशांति को पूर्णत: हटा सकते हैं , इसमें कोई हस्तक्षेप भी नहीं कर सकता .

हम अपने मन के ऊपरी तल पर जीते रहते हैं . मन का ऊपरी तल विभिन्न बाह्य घटनाओं व आंतरिक वृत्तियों से चलायमान - दोलायमान बना रहता है . इसी चंचलता में जीते हुवे हम इनसे सतत प्रभावित होते रहते हैं . मन के इस ऊपरी तल पर सामान्यत: हम अल्प नियंत्रण ही कर पाते हैं . प्रभु-कृपा से यदि हम मन के अंदर गहराई में प्रविष्ट हो जाएँ तो गहन शांति को तत्क्षण उपलब्द्ध हो सकते हैं .

समुद्र ऊपरी तल पर सदा चंचल - दोलायमान बना रहता है , अत: अशांत भी बना रहता है . उसमें बड़े तूफान भी आते हैं , तब अत्यंत अशांत हो जाता है . इसी प्रकार मन का ऊपरी भाग भी थोड़ा या अधिक चलायमान बना रहता है . यदि हम उसमें तैरने - ठहरने में समर्थ नहीं होते हैं , तो अशांत भी होते रहते हैं . जैसे समुद्र की गहराई में में उतर जाने पर चंचलता - अशांति नहीं रहती , उसी प्रकार यदि हम मन की गहराई में उतर जाएँ तो चंचलता - अशांति से उबर कर स्थिरता - शांति - सुख उपलब्द्ध हो सकते हैं .

एकांत में बैठकर जैसे ही मन में गहरे से गहरे उतर जाते हैं , वैसे ही चंचलता - अशांति - दुःख से दूर हटते जाते हैं और स्थिरता - शांति - सुख से युक्त होते जाते हैं . प्रभु ने हमें ऐसा मन दिया है जो लोक व्यवहार हेतु चलायमान भी हो सकता है व आंतरिक व्यवहार हेतु पूर्ण स्थित और एकाग्र भी हो सकता है . यह हमारी अकुशलता है की हम लोक व्यवहार में उपयोगी मन को चलायमान कर अव्यवस्थित - अनियमित करके लोक-व्यवहार में बाध्यें उत्पन्न कर लेते हैं व दुखी होते रहते हैं . यह हमारी अज्ञानता है की हम मन के स्थिर - एकाग्र हो सकने के सामर्थ्य का उचित व पर्याप्त उपयोग नहीं कर पाते हैं . प्रभु ने हम पर कृपा कर रखी है , हमें उस कृपा का लाभ उठाना है .******************


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