यह प्रभु का अटल नियम है कि दान देने वाले का अक्षय कल्याण होता है _ ' दाशुषे भद्रं करिष्यसि तव इत तत सत्यम ' . यह प्रसिद्द कथन है कि घर - घर मांगने के लिए घूमते भिखारी शिक्षा देते फिर रहे हैं कि मांग नही रहे . वे कहते हैं कि संसार के सम्पन्न लोगों ! जो तुम्हारे पास है , उसका नित्य दान करो . यदि नहीं दोगे तो तुम भी हमारी तरह घर -घर जाकर हाथ फैलाओगे .
प्रभु ने मृत्यु का कारण केवल भूख को ही नहीं बनाया है , अपितु जो भरपेट खाते हैं , वे भी मरते हैं . देने वाले का धन नष्ट नहीं होता , अपितु वह एक प्रकार से उसकी भविष्य - निधि में जमा होता है . स्मरण रखो कि बिना त्याग किए तुम अपने हितैषी नहीं बना सकते .
संसार त्याग से चलता है . जहाँ इसमें विराम हुवा कि संसार का विनाश हुवा . इसलिए इस पवित्र नियम को भंग करने वाले व्यक्तियों को वेद आदि शास्त्रों में राक्षस और समाज का शत्रु बताया है . यथा _ स्वार्थी और अविवेकी व्यर्थ ही अन्न ग्रहण करता है . तथ्य है कि यह उसका जीवन नहीं है , अपितु मृत्यु है . क्योंकि इस प्रकार का घोर स्वार्थी न अपना भला करता है और न मित्रों का . केवल अपने ही खाने - पीने का ध्यान रखने वाला अन्न नहीं खाता , पाप खाता है _ ' केवलाघो भवति केवलादी ' .
गीता में कहा गया है कि इस यज्ञ - चक्र को जो नहीं घुमाता , अर्थात जो भोग के साथ त्याग नही करता , वह पापी और विषयी है तथा उसका जीवन ही व्यर्थ है . वास्तव में खाना उसी का उचित है जो घर आये भूखे को अन्न देकर स्वयं खाता है और वह संसार में अपने मित्र बना लेता है .
प्रभु ने इस संसार को यज्ञ के साथ उत्पन्न किया है और वेद में उपदेश दिया है कि तुम यज्ञ के भाव और कर्म से ही फूल और फल सकते हो . तथा यह यज्ञ ही तुम्हारी सब कामनाएं पूर्ण करेगा . जड़ - जगत भी यज्ञ के आधार पर ही चल रहा है . पृथ्वी से उत्पन्न अन्न और ओषधियों की हम यज्ञ की अग्नि में आहुति देते हैं . अग्नि में डाली हुयी आहुति को सूर्य अपनी किरणों के द्वारा मेघ में परिवर्तित करता है . बादलों से वृष्टि होती है और वर्ष से अनंत ओषधियाँ और फूल - फल उत्पन्न होते हैं . जैसा कि महर्षि मनु ने कहा है _
' अग्नौ प्रास्ताहुति: तावदादी त्यमुप्तिष्ठते . आदित्यात जायते वृष्टि: वृष्ट्या अन्नं तत: प्रजा: .. '
अग्नि में डाली हुयी आहुति आदित्य को पहुँचती है . सूर्य से बादल बनकर वर्षा होती है . वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है और उस अन्न से जीवों का पालन- पोषण होता है . यह चक्र यदि इसी प्रकार घूमता रहता है तो संसार ठीक चलता रहता है . साथ ही जब कभी भी इसमें अवरोध उत्पन्न होता है तो वहां अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है .
यही बात हमारे संसार-चक्र पर भी पूरी घटती है . हमारे प्रत्येक कार्य में समाज का सहयोग प्राप्त होता है . उसी प्रकार हमें भी दूसरों के कार्यों में अपनी शक्ति और क्षमता के अनुसार त्याग के लिए उद्यत रहना चाहिए . यदि अपना ही सुख और अपना ही हित देखा और इसी की प्रतिक्रिया दूसरों पर भी वैसी हुयी तो यह संसार नरक बन जायेगा .
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