समत्व भाव को ही योग कहते
कर्मों का बंधन ' रागी' बनाता है। कर्मों से छुटकारा ' विरागी ' प्राप्त करता है। कर्मों का उदय और अस्त होना सूर्य की तरह निरंतर है,किन्तु सूर्य और कर्म में अंतर है। सूर्य को सभी जानते हैं , सभी को वह प्रकाश देता है। और कर्म ? कर्म मूल्यवान जीवन का नाश कर देता है। कर्म तो लोग बेहोशी में कर लेते हैं और मस्त रहते हैं। मगर पुण्य ; पुण्य देता है जीवन को सुमार्ग। जिसे धर्म सन्मार्ग कहता है। पर धर्मात्मा तो कर्म माने पाप के समय और पुण्य के समय सदा समता रखता है। पुण्य से मित्रता और न कर्म से शत्रुता रखता है। जीवन में जब उतार-चढ़ाव या सुख-दुःख, हर्ष-विषाद आते हैं तो वह उन्हें समय का प्रसाद ही स्वीकार करता है।***
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