सोमवार, 9 सितंबर 2013

बिना शंका के जीना ही धर्म

बिना शंका के जीना ही धर्म 




धर्म क्या है ? जो अंतस में आनन्द की सरिता प्रवाहित कर दे, जो कषायों एवं कल्मष की जंजीरों को तोड़ दे। जो दुःख के मार्ग से निकाल कर सुख की राह निर्मित कर दे। जो धार्मिक क्रियाओं के साथ संयत स्थिति कराए। धर्म का मर्म धार्मिक-अनुष्ठान है और धार्मिक अनुष्ठान का मर्म कल्मषों का समाधान है। जिस दिन हम धर्म के मर्म को समझ लेंगे ; उस दिन हम स्वयं सुख-पूर्वक जीयेंगे तथा दूसरों को भी सुख-पूर्वक जीने देंगे। सुख का निर्माता धर्म है , किन्तु दुःख हम स्वयं निर्मित करते हैं; वे कभी बाहर से नहीं आते हैं। यह अलग बात है कि हम सुख में भी सुख से नहीं जी पाते हैं। अत: धर्म को धर्म को समझ कर धर्माचरण को अपनाना चाहिए साथ ही अपने आत्मस्थ एवं जगत के कल्मष का भी निराकरण करना चाहिए।

प्रेय से श्रेय की ओर जाना , प्रभु की शरण में ही जाना है। भीतर स्थापित अहंकार को गलाना एवं नष्ट करना होगा। अहं के नष्ट होने के बाद और प्रभु की शरण में जाने के बाद मन विकल्प-हीन हो जाता है। प्रश्न और तर्क का युग व समय बीत जाता है। यहीं से व्यक्ति धर्म का मर्म समझने लहता है , भीतर ही भीतर धर्मात्मा बनने लहता है। तब किसी भी प्रकार का दिखावा और छलावा नहीं रह पाता है। आत्मस्थ का कुछ शेष नहीं रह पाता , मात्र धर्म रह जाता है और धर्म का ध्येय है बस श्रेय।****************

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