मंगलवार, 31 मई 2011

आनन्द मन का एक भाव है

आनन्द मन का एक भाव है 



आनन्द एक अनुभूति है । यह अनुभति आंतरिक खोज पर आधारित है । चित्त वृत्तियों को निरुद्ध करके ही व्यक्ति आनन्द के स्तर को प्राप्त कर सकता है । अनेक कोषों में आन्दमय कोष भी विशिष्ट स्थिति को रखता है । आनन्द व्यक्ति विभिन दशाओं एवं विविध परिस्थितियों में प्राप्त कर सकता है । किसी को सांसारिक प्रक्रियाओं में आनन्द आ सकता है । पर यह आनन्द स्थायी नहीं रह पाता । 

काव्य या साहित्य का आनन्द ब्रह्मानन्द के सहोदर माना गया है । यह आनन्द भी समकक्ष होते हुवे भी स्थायी आनन्द की श्रेणी में नहीं आ पाता है । वास्तविक एवं सच्चा आनन्द तो मानसिक अनुभूति है , जो साधना के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है। साधक को साधन की पवित्रता के साथ परम आनन्द की अनुभूति हो सकती है । सत -चित और आनन्द की अनुभति ही सच्चिदानन्द है । *****

बन जाता है व्यक्ति बड़ा सबके कल्याण में

बन जाता है व्यक्ति बड़ा सबके कल्याण में 



स्वार्थ को नहीं अपितु जीवन में सर्वार्थ के प्रति ध्यान देना चाहिए । स्वार्थ में व्यक्ति सीमित और जब कि सर्वार्थ में व्यक्ति असीमित हो जाता है । सर्वार्थ-सेवा की महिमा जितनी भी कही जाये उतनी ही कम है । निस्वार्थ -भाव से की गयी सेवा के समान कोई सेवा नहीं है । स्वार्थ -त्याग से जहाँ प्रभु की कृपा होती है , वहां चित्त-वृत्ति निर्मल और मन में शांति का उदय होता है ।

हमारी प्रार्थना भी स्वार्थ रहित है और उसमें सर्वार्थ की ही भावना है । हम प्रार्थना में _ ' सर्वे भवन्तु: सुखिन: , सर्वे सन्तु: निरामया: । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु: , मा कश्चिद दुःख मा भवेत ॥ ' के द्वारा सर्व-मंगल की कामना करते हैं। सब सुखी रहें , सब निरोगी रहें । सभी भद्र -भाव से युक्त अर्थात गुण-सम्पन्न रहें । यदि हम में गुण हैं तो हमारी गुणि-जनों से ही संगति होगी । तभी परस्पर वे एक-दूसरे के कल्याण की कामना ही करेंगे और परस्पर एक-दूसरे का कल्याण ही देखेंगे । साथ ही यह कामना कि संसार में कोई भी दुखारी न हो । सर्व-सुख की कामना भक्त की विशद चाह है । यही स्वार्थ से सर्वार्थ की ओर बढ़ता अग्रगामी कदम है ।


किसी कार्य में यह देखना कि मुझे क्या लाभ होगा ? यह उचित नहीं है । कार्य में लाभ की आशा करना ही स्वार्थ-भावना का सूचक है । इसीलिए श्री कृष्ण ने गीता में कर्म करने पर ही बल दिया है न कि फल की आसक्ति पर _ ' कर्मण्येव अधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ' । फल की आसक्ति ने व्यक्ति का पतन ही किया है । उसे सदैव घोरतम स्वार्थी ही बनाया है , जबकि कर्म -आसक्ति ने व्यक्ति को जहाँ उत्साहित बनाया है वहां सर्वार्थ की भावना से भी संयुक्त किया है ।********************



सोमवार, 30 मई 2011

गुरु और भगवान

गुरु और भगवान्

                                             

जहाँ गुरु से शिष्य का गौरव बढ़ता है , वहां अच्छे एवं योग्य शिष्य से गुरु को भी प्रतिष्ठा की उपलब्द्धि होती है । स्वामी दयानन्द भी योग्य गुरु की तलाश में वर्षों तक नगर -नगर और वन-वन भटकते रहे । अनेक स्थान पर विचरण करने के बाद ही मथुरा में गुरु विरजानन्द मिल सके । स्वामी दयानन्द को जहाँ सच्चे गुरु का बोध हुवा , वहां प्रज्ञा -चक्षु विरजानन्द को दयानन्द के रूप में सही दृष्टि ही मिल गयी । वास्तव में हर गुरु को एक अच्छे शिष्य की तलाश होती है । 

बिना योग्य शिष्य के गुरु स्वयं को अधूरा समझता है । यदि उन्हें योग्य शिष्य मिल जाता है तो उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे उनका जीवन सफल हो गया हो । एक अच्छे शिष्य की खोज ही उनकी गुरु-दक्षिणा हो जाती है । ठीक उसी प्रकार भक्त और भगवान का स्थान है । जहाँ भक्त भगवान की खोज में रत रहता है , वहां भगवान भी प्रिय भक्त असीम स्नेह बरसाता है । सच्चे भक्त भगवान को अत्यधिक प्यारे होते हैं। भगवान भी भक्त की सच्ची पुकार सुनकर व्याकुल हो जाते हैं । यह भक्ति की निर्मल धारा ही भक्त और भगवान के सम्बन्ध को अत्यधिक व्यापक और अभिन्न बना देती है ।

अत: गुरु को भगवान के समकक्ष माना गया है और यहाँ तक कि गुरु का दर्जा ईश्वर से भी ऊंचा है । गुरु को ब्रह्मा , विष्णु और परमप्रभु स्वीकार किया गया है । गुरु देवाधिदेव है । गुरु ही ईश्वर का रास्ता दिखाने वाला है ।*****

रविवार, 29 मई 2011

इच्छाओं को सुरसा की तरह न बढ़ाओ

इच्छाओं को सुरसा की तरह न बढ़ाओ 


                                                


 इच्छाएं इतनी अधिक बढ़ जाती हैं की उनकी पूर्ति सहज ही सम्भव नहीं है । इच्छाओं की पूर्ति के चक्कर में जीवन ही समाप्त होने लगता है और इच्छाएं पर समाप्त नहीं हो पातीं । कहा भी गया है कि _ ' वासानि जीर्णा: अपितु वयमेव जीर्णा: ' हम नष्ट होते जाते हैं , पर वासनाएं नष्ट नहीं हो पाती हैं । इन न नष्ट होने वाली इच्छाओं को ही तृष्णा कहा गया है ।

' तृष्णा ' को रेखांकित करने के लिए योग-दर्शन में ' अपरिग्रह ' का नाम दिया गया है । अपरिग्रह का अर्थ है किसी भी संसारी वस्तु को संयमित रूप से ग्रहण करना । जितनी आवश्यकताएं हम बढ़ाएंगे उतनी ही समस्याएं बढ़ेंगी। हमें अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखने का प्रयास करना चाहिए ।  तृष्णा का अर्थ है एक ऐसी तृषा जो न शांत हो । जो लगातार ही बनी रहे । तृष्णा हमारी बुद्धि को भ्रष्ट कर विवेक-शून्य बना देती है ।********
                                           
                                                  


शनिवार, 28 मई 2011

छोड़ने में ही शांति


छोड़ने में ही शांति 


                                                          

शांति जीवन का आधार है । वैदिक प्रार्थना में शांति का अत्यधिक महत्त्व है । वैदिक साहित्य में शांति -पाठ के अंतर्गत समस्त ब्रह्मांड के सुख एवं शांति की प्रार्थना की गयी है । 

शांति वहां है , जहाँ मुक्त लोग निवास करते हैं ।शांति तो अंतर्मन की आवाज है , जो अंदर में खोजने से उपलब्द्ध होती है । गीता के अनुसार _ जो अशांत है तो उसे सुख कहाँ से मिलेगा ? 

 एक कथा है _ ' एक बार भगवान ने सब भक्तों को अपने पास से कुछ न कुछ देने को बुलाया । सब मानव आये । भगवान ने सबको सब कुछ दिया । मानव अपनी झोली फैलाये सब कुछ ले रहे थे। सब बहुत खुश थे । भगवान जब दे रहे थे , उस समय एक वस्तु नीचे गिर गयी ।भगवान ने उस पर अपना पैर रख दिया । लक्ष्मीजी ने देख लिया । जब सब मानव चले गये तो तब लक्ष्मीजी ने पूछा _ ' आप अपने पैर के नीचे क्या चीज दबाये खड़े हैं ? ' प्रभु ने कहा _ ' वह शांति है । '

 प्रभु ने सब कुछ दिया , पर शांति अपने पैर के नीचे छुपा कर रख ली । शांति के लिए प्रभु की शरण में जाना पड़ता है । शांति त्याग करने से मिलती है ।

                                                           
                                     

शुक्रवार, 27 मई 2011

रखो डोर को खींच के

रखो डोर को खींच के 





 जीवन में सहनशीलता के अभाव में बात बढ़ जाती है और उसके परिणाम भयंकर होते हैं । सहनशीलता के अभाव में समाज और परिवार एवं व्यक्ति को जन-माल की जो क्षति होती है उनके आंकड़े एकत्रित किये जाएँ तो परिणाम चौंकाने वाले होते है ।मनुष्य  जब सहनशीलता को त्यागता है , तब वह क्रोध और अशांति से अपने को घिरा पाता है ।


सहनशीलता और संयम का दूसरा पहलू है कि मनुष्य के जीवन में कभी रोग , कभी शोक , कभी पराजय और कभी हानि की स्थिति आती रहती है । मनुष्य यदि ऐसी परिस्थितियों को सृष्टि रूपी नाटक के विभिन्न दृश्यमान पर संयम से काम लेता है तो उसके स्वास्थ्य और मन पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ता । जो इन्हें खेल की दृष्टि से नहीं देखता और न ही उन्हें वर्तमान पुरुषार्थ की कमी का अस्थायी परिणाम मानकर उत्साह पूर्वक इनका सामना करने की बात नहीं सोचता ।वह अपना स्वास्थ्य , स्मरण-शक्ति , मनोबल और अपनी शांति गंवा बैठता है । 

अत: मनुष्य को चाहिए कि वह अपने उत्कर्ष के अनमोल साधन सहनशीलता को अपनाये । संयम एक ऐसा गुण है , जो व्यक्ति की कार्य-क्षमता बढ़ाता है और उसे आगे ले जाता है , उसे सम्पूर्णता प्रदान करने में मदद करता है । *****

गुरुवार, 26 मई 2011

मुस्कुराते रहिये

मुस्कुराते रहिये 

                                           

भय और आत्महीनता की ग्रन्थि को मन से निकालकर जिस सीमा तक मन को खोल सकें उसको खोलें। मन की बात कहें और दूसरों को भी यह अवसर दें कि वे भी मन की बात कह सकें । अपनी प्रसन्न एवं संतुष्टि व आशान्वित मनोवृत्ति का परिचय प्रकट होने दें । इससे मनुष्य का गौरव बढ़ता है । इस बात का परिचय भी मिलता है कि उसके भीतर खोखलापन या खालीपन नहीं है ।


कहते हैं कि जब मनुष्य हंसता है तो मोती उगते और फूल झरते हैं । इस प्रसाद को पाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति लालायित रहता है । हंसते हुवे मनुष्य को देखकर देखने वाले प्रसन्नचित्त हो जाते हैं । ठीक उसी प्रकार कैसे रोते को देखकर रोना आ जाता है । यह बिना पूंजी का उपहार है , जिसे किसी को भी कितनी ही देर तक कितनी ही मात्र में दिया जा सकता है । किसी के दांत प्रकृति ने कैसे ही क्यों न बनाये हों , पर जब वे खिलते हैं तो सहज सौन्दर्य से भर जाते हैं । मुस्कुराने का स्वभाव मानसिक स्वास्थ्य को विद्यमान रखने और दूसरों को वही उपहार बांटने की दृष्टि से बहुत उपयोगी है । इसे विकसित करने के लिए व्यायाम या योगाभ्यास की भांति इसे प्रारम्भ किया जा सकता है ।*****

कल्पना से सुविचार को मजबूत कीजिये

कल्पना से सुविचार को मजबूत कीजिये                                                                                                                                            





एक पुरानी कथा है कि एक व्यक्ति जंगल से गुजर रहा था । भूख-प्यास से बेहाल हो गया । गर्मी और थकान से हारा वह व्यक्ति एक छायादार वृक्ष के नीचे बैठ गया । उसे यह पता नहीं था कि वह जिस वृक्ष के नीचे बैठा है , वह कल्प-वृक्ष है । गर्मी से राहत मिली तो सोचा कि यदि कहीं से खाना मिल जाता । अचानक उसके सामने सुस्वादु भोजन का थाल और जल से भरा मटका उपस्थित हो गया । उसने पेट भर खाना खाया और पानी पीया । अब उसका दिमाग चलने लगा । उसके भीतर डर और आशंकाएं सिर उठाने लगीं । उसने सोचा , हो न हो , इस पेड़ पर कोई भूत रहता होगा , जिसने यह चमत्कार किया । तब तो यह भूत पेड़ से कूदकर मुझे खा जायेगा । उसके इतना सोचने पर भर की देर थी कि पेड़ से एक भूत कूदा और उसे खा गया । निश्चित रूप से यह कथा कपोल-कल्पित है , लेकिन इसमें जीवन का मर्म निहित है ।



 कोई भी नकारात्मक विचार यदि हम मन में बैठा लें , तो वह हमें पूरी तरह नकारात्मक बना देता है । और सच मानिये यह छवि लोगों को अच्छी नहीं लगती । लोग हमसे कटते चले जाते हैं । इसके विपरीत सकारात्मक विचारों से हम अपने अंतस और व्यक्तित्व को तो निखारते ही हैं और लोगों को भी अपने पक्ष में जोड़ लेते हैं और सुख के भागी बन जाते हैं ।


सकारात्मक विचारों के प्रवाह से हम मन को परिष्कृत करते हैं । मन तभी परिष्कृत होगा , जब हम अपनी कल्पना-शक्ति से सकारात्मक विचारों का सृजन करने लगेंगे । 


सकारात्मक कल्पनाओं को संकल्प में बदलकर हम मन को साध लेते हैं । फिर मन कल्पवृक्ष की तरह सदैव अच्छे परिणाम देने लगता है । ओशो के अनुसार _ मन कम्प्यूटर की भांति अतीत के अनुभवों और सीखी गयी जानकारियों का एक यंत्र है , जो जीवन में नई सम्भावनाओं के द्वार खोलता है । ' अत: स्पष्ट है कि जब हमारी कल्पना-शक्ति संकल्प-शक्ति में परिणत हो जाती है तो मन कल्पवृक्ष बन जाता है और इच्छित फल देने लगता है। हमें मात्र अपने भीतर के डर , अहंकार , लोभ इत्यादि की कुप्रवृत्तियों को बस दूर करना होगा ।******





सम्यक -संकल्प

सम्यक - संकल्प 



सम्यक का अर्थ है _ यथोचित , दृढ़ और यथार्थ । संकल्प का अर्थ है _ विचार । लौकिक जीवन समुचित व्यवहार वाला हो तथा पारलौकिक दृष्टि स्वच्छ हो । इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य सम्यक संकल्प वाला हो । सम्यक-संकल्प से मन के विचारों से उत्साहित होकर काम , क्रोध आदि से छूट जाता है तथा निर्वाण के पथ पर अग्रसर होता है ।

सम्यक-संकल्प का दूसरा प्रकार है _ अद्वेष का संकल्प करना ।  हमें किसी भी प्रकार की हानि पहुंचाता है तो उसके प्रति भी दुर्भाव रखना द्वेष-दृष्टि है । । 

यदि व्यक्ति अपने सामर्थ्य का विचार करें और सम्यक अर्थात दृढ़ संकल्प के साथ कार्य में जुट जाये तो उसकी कामना की पूर्ति अवश्य होती है । ******

भाव ने बनाया प्रभु को भाव ने बनाया प्रभु को

भाव ने बनाया प्रभु को   




प्रकृति से प्राण वायु साँस लेने के लिए , स्वस्थ शरीर के लिए अति आवश्यक जल , अन्न , फल-फूल आदि उपलब्द्ध है । मानव के ज्ञान-अर्जन के लिए ज्ञानी पुरुषों की श्रुतियां , परमार्थ जीवन , प्रभु-मिलन का पथ और मार्ग-दर्शन के लिए शास्त्र-ज्ञान उपस्थित है । ये सारी व्यवस्थाएं एक दिन में नहीं बनी होंगी । उन्हें बनाने और कार्य रूप में परिणत करने में किसी का तो योगदान रहा होगा । उसे हम एक क्षण में विस्मृत नहीं कर सकते । उनका नाम हम अगर नहीं भी जानते हैं तो भी उसे किसी दिव्य शक्ति की संज्ञा या प्रभु के नाम से पुकारा जा सकता है । इसे भव-बंधन भी कहा गया है और इसी में सुख-दुःख विद्यमान है । सकाम कर्म ही भव-बंधन का कारण है। जब तक मनुष्य शारीरिक सुख का स्तर बढ़ाने के उद्देश्य से कर्म करता है , तब तक विभिन्न प्रकार के देहांतरण करते हुवे महाबन्धन में फंसा रहता है

इस संसार में मनुष्य के आने का उद्देश्य सिर्फ जीवन -यापन ही नहीं है । जीवन-यापन के उपयोग के लिए यहाँ तमाम सुविधाएँ पहले से ही उपलब्द्ध हैं । अत: उनके प्रति प्रेमाभक्ति ही लक्ष्य होना चाहिए । उस से पूर्ण तृप्ति होगी । जो मनुष्य प्रभु-भक्ति में लीन रहता है तो वह अपने में प्रसन्न रहता है । स्वार्थ में तत्पर व्यक्ति कभी प्रभु-भक्ति में मन नहीं लगा सकता है । उसकी यही कमजोरी उसे परमपिता से दूर करती है । वस्तुत: प्रत्येक जीव प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुवे धरती पर आया है । प्रभु जन-जन के ह्रदय में परमात्मा-रूप में स्थित हैं। जब मन भौतिकता द्वारा विपथ कर दिया जाता है , तब वह विकारी कार्य-कलापों में उलझ जाता है और पूर्ण प्राप्ति नहीं कर पाता । हमारे अंदर परमात्मा का अंश आत्मा अवस्थित माना गया है । वही परम तत्व है और जो कर्म , अकर्म एवं सुकर्म का वाहक है ।*****

सोमवार, 23 मई 2011

रैन बसेरा

रैन बसेरा



यह दुनिया एक रैन बसेरा है । महत्त्वपूर्ण बसेरा नहीं , अपितु नींद है । नींद नहीं आनी तो नहीं आनी । चाहे स्वर्ण-शैया हो या मोती-माणिक की चादरें और देह करवटें बदलती-बदलती ऊब जाती है । 

परिजन जीवन-यात्रा की रेल में अंग-संग बैठे हुवे सहयात्रियों की तरह अपने होते हुवे भी अपने नहीं होते । क्योंकि उनकी सम्बद्धता कुछ निही स्वार्थों व संचित कर्मों के अनुसार अलग-अलग होती है । उनका गन्तव्य और मन्तव्य भी उसी अनुपात में भिन्न-भिन्न होता है । कोई कहीं उतरता है और कहीं अन्य स्तन पर उतरता है ।


जीवन-यात्रा की खाली रेल में जब सवार हुवे तब भी अकेले चढ़े थे । खाली रेल से जब भी उतरेंगे तब भी अकेले ही उतरेंगे और जीवन रेल को खाली ही छोड़ना होगा । इस आकर्षण जगत में असंख्य पालक -पिता के होने पर भी हर मनुष्य का सत्यमेव पिता एक ही है । यही परमपिता है और वही परमपिता ही उसके लिए चिंतित रहता है । सम्पूर्ण चराचर सृष्टि का एक ही परमपिता है , जो सर्वशक्तिमान ईश्वर है । रैन बसेरे तो उस महायात्रा के क्षणिक विश्राम-स्थल मात्र हैं । पहुंचना तो बसेरों का वह आखिरी पड़ाव है , जहाँ से तृष्णाओं एवं कामनाओं की इस जगत-यात्रा में पुनरावृति न हो । हम उस पिता की चिंता न करें और वह परमपिता हमारी चिंता निश्चित रूप से करेगा ही ।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&

नमन

नमन


सामान्यतया नमन शब्द का अर्थ नमस्कार करने , झुक जाने , नम जाने , नम्रीभूत हो जाने , किसी का चरण-स्पर्श करने आदि के अर्थ में प्रयोग किया जाता है । 

'
ह्रदय की मिट्टी का द्रवीभूत हो जाना ही नमन कहलाता है । साथ ही नमन का अर्थ यह भी हो सकता है कि नमन अर्थात जहाँ मन ही न हो। अत: स्व-अस्तित्व को भूल कर अपने आराध्य के चरणों में में समर्पित हो जाये । हमारा कुछ भी शेष न रहे , हम अपने आराध्य के चरणों में विलीन हो जाएँ । यही नमन का मूल भाव हो सकता है ।

अस्तु , आज तक हमने नमन तो किया , परन्तु नमन का वास्तविक रूप हमारे अन्तस्तल में उद्भूत ही नहीं हुवा । शरीर झुका और मस्तक झुका पर मन नहीं झुक सका । यदि एक बार भी हम ऐसा नमन कर लें तो इस संसार के सारे कष्ट ही दूर हो जायेंगे । अपने शास्त्रों एवं गुरुजनों से सच्चा प्रेम हो जायेगा और प्रेम हो जाने पर समर्पण हो जायेगा । परन्तु यह तभी होगा कि जब हम नमन की मात्र औपचारिकता ही पूर्ण न करें किन्तु यथार्थता का अवलम्बन लें । एक बार ऐसा नमन हो कि हमारे अन्तरंग से अवगुणों का गमन और कल्मषों का शमन हो जाये।********

रविवार, 22 मई 2011

जीवन को आत्म-कल्याण


जीवन को आत्म-कल्याण


अरे भई , यह शरीर भी एक जेल है ओर इसमें यह आत्मा युग-युगों से कैद है ।  एनी जेल में पहुंचा दिया जाता है । वहां कुछ समय रहकर वह अपने कुकर्मों की सजा भोगता एवं मार खाता है । वह पुलिस वालों के डंडे ही क्या अपितु हंटरों के प्रहार सहन करता है और रोता -पीटता सर धुनते हुवे अपना समय पूर्ण करता है ।
इस शरीर रूपी जेल में कैद आत्मा भी कर्मों की सहन करता है और कभी नरक -गति में जा कर वहां के हंटरों की वेदना सहन करता है । कभी दैवगति की वासना में उलझ जाता है और कभी मनुष्य -गति के अहंकार रूपी घनों के प्रहार सहता है । अनंत गुण-वैभव से संयुक्त जीव हम क्यों निज प्रभुता को भूल कर व्यर्थ ही कष्ट सहन कर रहे हैं । यदि हम इस जेल से मुक्त होना चाहते हैं तो हमें अपराधिक प्रवृत्तियों से दूर रहना चाहिए । अशुभ पाप पूर्ण प्रवृत्तियों से मुख मोड़ कर शुभ एवं पुण्य युक्त क्रियाओं को प्रारम्भ करना चाहिए तथा अपने जीवन को आत्म-कल्याण और सर्व-कल्याण में प्रवृत्त करना चाहिए ।*******