मंगलवार, 31 मई 2011

बन जाता है व्यक्ति बड़ा सबके कल्याण में

बन जाता है व्यक्ति बड़ा सबके कल्याण में 



स्वार्थ को नहीं अपितु जीवन में सर्वार्थ के प्रति ध्यान देना चाहिए । स्वार्थ में व्यक्ति सीमित और जब कि सर्वार्थ में व्यक्ति असीमित हो जाता है । सर्वार्थ-सेवा की महिमा जितनी भी कही जाये उतनी ही कम है । निस्वार्थ -भाव से की गयी सेवा के समान कोई सेवा नहीं है । स्वार्थ -त्याग से जहाँ प्रभु की कृपा होती है , वहां चित्त-वृत्ति निर्मल और मन में शांति का उदय होता है ।

हमारी प्रार्थना भी स्वार्थ रहित है और उसमें सर्वार्थ की ही भावना है । हम प्रार्थना में _ ' सर्वे भवन्तु: सुखिन: , सर्वे सन्तु: निरामया: । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु: , मा कश्चिद दुःख मा भवेत ॥ ' के द्वारा सर्व-मंगल की कामना करते हैं। सब सुखी रहें , सब निरोगी रहें । सभी भद्र -भाव से युक्त अर्थात गुण-सम्पन्न रहें । यदि हम में गुण हैं तो हमारी गुणि-जनों से ही संगति होगी । तभी परस्पर वे एक-दूसरे के कल्याण की कामना ही करेंगे और परस्पर एक-दूसरे का कल्याण ही देखेंगे । साथ ही यह कामना कि संसार में कोई भी दुखारी न हो । सर्व-सुख की कामना भक्त की विशद चाह है । यही स्वार्थ से सर्वार्थ की ओर बढ़ता अग्रगामी कदम है ।


किसी कार्य में यह देखना कि मुझे क्या लाभ होगा ? यह उचित नहीं है । कार्य में लाभ की आशा करना ही स्वार्थ-भावना का सूचक है । इसीलिए श्री कृष्ण ने गीता में कर्म करने पर ही बल दिया है न कि फल की आसक्ति पर _ ' कर्मण्येव अधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ' । फल की आसक्ति ने व्यक्ति का पतन ही किया है । उसे सदैव घोरतम स्वार्थी ही बनाया है , जबकि कर्म -आसक्ति ने व्यक्ति को जहाँ उत्साहित बनाया है वहां सर्वार्थ की भावना से भी संयुक्त किया है ।********************



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