बुधवार, 18 मई 2011

स्वामी विवेकानन्द

स्वामी विवेकानन्द





स्वामी विवेकानन्द ने साधुओं -पंडितों और मन्दिरों की इस पारम्परिक अवधारणा को पूरी तरह नकार दिया है कि धार्मिक जीवन का उद्देश्य केवल संन्यास के उच्चतर मूल्यों को या मोक्ष को पाना है । इसके बजाय इन्होंने निर्धन और दीन -हीन लोगों की सेवा पर ज्यादा जोर दिया । इन्होंने इस प्रत्यक्ष-सिद्ध सत्य को एक नया शब्द ' दरिद्र नारायण ' दिया । अर्थात ईश्वर का निवास गरीबों और असहाय लोगों में होता है ।

 विवेकानन्द ने इस बात पर जोर दिया कि प्रत्येक धर्म गरीबों की सेवा करे और समाज के पिछड़े लोगों की अज्ञानता , दरिद्रता और रोगों से मुक्ति का कार्य करे । इन्होंने गरीबों की सेवा को पूजा का मान और नाम दिया । उस उच्च स्तर पर पहुँचने के बाद विभिन्न मतों के बीच सद्भाव का विशेष महत्त्व होता है । स्वामी विवेकानन्द ने स्पष्ट किया कि वेदांत दर्शन किसी विशेष का दर्शन नहीं है , अपितु यह सभी धर्मों का सार है । ११ सितम्बर १९९३ को शिकागो के धर्म सम्मेलन में दी गये अपने ऐतिहासिक भाषण में स्वामीजी ने स्पष्ट किया कि ईसाइयों को न तो हिन्दू या बौद्ध होने की जरूरत है और साथ ही न ही हिन्दुओं एवं बौद्धों को ईसाई बनने की । लेकिन प्रत्येक को दूसरों की आत्मा से जुड़ना है और अपनी व्यक्तिगत विशेषता को बरकरार रखते हुवे अपनी विकास -विधि से ही आगे बढ़ना है ।

स्वामी विवेकानन्द मानवीय आचार-विचार में अनेकता को विशेष महत्त्व देते थे और उनमें एक रूपता लाने के विरुद्ध थे । वे प्राय: आचार्य पुष्प दंत की ये पंक्तियाँ उद्धृत करते थे । आर्थ यह है कि सभी नदियाँ टेड़ा या सीधा रास्ता पकड़कर समुद्र तक पहुँचती हैं , वैसे ही रुचियों की भिन्नता के कारण लोग सरल या कठिन रास्ता भले ही चुन लें , मगर सबका गंतव्य एक ही है । स्वामीजी विभिन्न धार्मिक आस्थाओं में सामंजस्य स्थापित करने के पक्ष थे और सभी को एक धर्म का अनुयायी बनाने के विरुद्ध थे ।

 विवेकानन्द कहा करते थे कि यदि सभी मानव एक ही धर्म को मानने लगें और एक ही पूजा-पद्धति को अपना लें , तो यह विश्व के लिए सबसे दुर्भाग्य पूर्ण बात होगी । क्योंकि यह सभी धार्मिक और आध्यात्मिक विकास के लिए प्राण-घातक हो जायेगा । स्वामीजी के आचार और विचार के दो ऐसे पहलू हैं , जो आज के भारत और विश्व के लिए बहुत उपयोगी हैं ।*******



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