गुरुवार, 26 मई 2011

भाव ने बनाया प्रभु को भाव ने बनाया प्रभु को

भाव ने बनाया प्रभु को   




प्रकृति से प्राण वायु साँस लेने के लिए , स्वस्थ शरीर के लिए अति आवश्यक जल , अन्न , फल-फूल आदि उपलब्द्ध है । मानव के ज्ञान-अर्जन के लिए ज्ञानी पुरुषों की श्रुतियां , परमार्थ जीवन , प्रभु-मिलन का पथ और मार्ग-दर्शन के लिए शास्त्र-ज्ञान उपस्थित है । ये सारी व्यवस्थाएं एक दिन में नहीं बनी होंगी । उन्हें बनाने और कार्य रूप में परिणत करने में किसी का तो योगदान रहा होगा । उसे हम एक क्षण में विस्मृत नहीं कर सकते । उनका नाम हम अगर नहीं भी जानते हैं तो भी उसे किसी दिव्य शक्ति की संज्ञा या प्रभु के नाम से पुकारा जा सकता है । इसे भव-बंधन भी कहा गया है और इसी में सुख-दुःख विद्यमान है । सकाम कर्म ही भव-बंधन का कारण है। जब तक मनुष्य शारीरिक सुख का स्तर बढ़ाने के उद्देश्य से कर्म करता है , तब तक विभिन्न प्रकार के देहांतरण करते हुवे महाबन्धन में फंसा रहता है

इस संसार में मनुष्य के आने का उद्देश्य सिर्फ जीवन -यापन ही नहीं है । जीवन-यापन के उपयोग के लिए यहाँ तमाम सुविधाएँ पहले से ही उपलब्द्ध हैं । अत: उनके प्रति प्रेमाभक्ति ही लक्ष्य होना चाहिए । उस से पूर्ण तृप्ति होगी । जो मनुष्य प्रभु-भक्ति में लीन रहता है तो वह अपने में प्रसन्न रहता है । स्वार्थ में तत्पर व्यक्ति कभी प्रभु-भक्ति में मन नहीं लगा सकता है । उसकी यही कमजोरी उसे परमपिता से दूर करती है । वस्तुत: प्रत्येक जीव प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुवे धरती पर आया है । प्रभु जन-जन के ह्रदय में परमात्मा-रूप में स्थित हैं। जब मन भौतिकता द्वारा विपथ कर दिया जाता है , तब वह विकारी कार्य-कलापों में उलझ जाता है और पूर्ण प्राप्ति नहीं कर पाता । हमारे अंदर परमात्मा का अंश आत्मा अवस्थित माना गया है । वही परम तत्व है और जो कर्म , अकर्म एवं सुकर्म का वाहक है ।*****

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