सोमवार, 16 मई 2011

सौभाग्य

सौभाग्य   




पूर्वकृत कर्मों के अनुसार भौतिक संपदाओं की प्राप्ति होना और मोक्ष -मार्ग रूपी परिणामों का होना ही सौभाग्य कहा जाता है । प्रत्येक प्राणी का अपना -अपना भाग्य होता है । उसमें से जिसे अनुकूल सामग्री की उपलब्द्धि होती है तो उसे सौभाग्यशाली कहा जाता है एवं जिसके जीवन में प्रतिकूलताओं का समागम प्राप्त होता है और जिसे विपत्तियाँ झेलनी पड़ती है एवं कष्ट उठाने पड़ते हैं तो उन्हें दुर्भाग्यशाली कहा जाता है ।

हमने आज तक यही समझा है कि इष्ट की प्राप्ति होना सौभाग्य है और अनिष्ट का संयोग होना दुर्भाग्य का सूचक है। पर हमने वास्तविकता को नहीं समझा है । हमारी दृष्टि मात्र लौकिक सम्पदा या लोकेष्णा की पूर्ति और आपूर्ति तक ही सीमित रही । इससे ऊपर आगम और अध्यात्म तक हमारा ध्यान ही नहीं गया ।

अस्तु , पाप-कर्म का उदय दुर्भाग्य का और पुण्य कर्म का उदय या वांछित वस्तुओं की प्राप्ति होना ही सौभाग्य एवं दुर्भाग्य की निशानी नहीं है ; अपितु पाप-कर्म के उदय में विह्वल न होना , संतोषी भाव का जागृत होना , मैत्री-प्रमोद -कारुण्य एवं सम अर्थात मध्यस्थ भाव का उद्भव होना और संकट आने पर धैर्य से विचलित न होना ही सौभाग्य का प्रतीक है ।

सौभाग्य में पूर्व कर्म के उदय की अपेक्षा वर्तमान पुरुषार्थ की ही विशेषता है । आगम , शास्त्र -वेद आदि के सन्दर्भ में सबसे अधिक सौभाग्यशाली वह है जो संयम और धैर्य की साधना करे और इससे भी अधिक सौभाग्यशाली वह है जो अनुभति की अनुपम मणियों से अपनी आत्मा को सुसज्जित कर ले । स्व-संवेदन जगा कर और वह कर्त्ता या भोक्ता की भावना से ऊपर उठ जाये । साथ ही वह निज ज्ञाता-द्रष्टा भाव में लीन हो जाये ।******

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