शनिवार, 14 मई 2011

व्यवहार

 व्यवहार






सामान्यत: व्यवहार के तीन भेद हैं _ लोक-व्यवहार , आगम-व्यवहार और अध्यात्म-व्यवहार । लोक में प्रशंसनीय कार्य एवं आचरण लोक-व्यवहार कहा जाता है । शास्त्र एवं वेद-सम्मत प्रतिपादित आगमानुसार आचरण आगम-व्यवहार कहलाता है । द्रव्य एवं भाव-कर्म रहित स्व-संवेदन रूप आचरण अध्यात्म-व्यवहार कहलाता है ।


इन तीन में से हमें किस व्यवहार को सम्भालना है एवं किस के लिए हमने आज तक सम्भाला है ? यह चिंतनीय है। संसार में यश -ख्याति , पूजा-प्रतिष्ठा पाने के लिए लोक -व्यवहार में पटु होना आवश्यक है । अथवा यह कहा जा सकता है कि लौकिक कार्यों की पूर्णता के लिए संसार में यश-रूपी वैभव प्राप्त करने हेतु लोक-व्यवहार में दक्षता परम-आवश्यक है । कहा भी गया है _ ' जिन घर मांहि कछु न बन्यों वे बन मांहि कहा करिहें । '


इससे ऊपर उठने वाला जीव लोक-व्यवहार के साथ -साथ आगम -व्यवहार में परिपूर्णता को प्राप्त होता है । जिसकी दृष्टि में लोक एवं लौकिक जनों से वैराग्य जागृत हुवा है वह लोकाचार के विरुद्ध आचरण नहीं करता हुवा भी आगम -व्यवहार का पालन करता है । जो निजानन्द और निज अनुभवों को जागृत करने एवं ज्ञानामृत का पान करने के लिए तत्पर है , वह अध्यात्म -व्यवहार को ही प्रमुखता देता है ।



अस्तु , लोक में लोकाचार का , बाह्य-आचरण में आगम-आचार का और अन्तरंग आचरण अर्थात स्वानुभूति के लिए अध्यात्म व्यवहार उपादेय है । अत: व्यवहार उत्तरोत्तर लोक से आगम , आगम से अध्यात्म की ओर सदैव अग्रसर होना चाहिए । तभी दैहिक , मानसिक और आध्यात्मिक कल्याण सम्भव हो सकता है।******


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