बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

विचार संस्कार और भावनाओं का परिमार्जन आध्यात्मिक जीवन

                                         

विचार संस्कार और भावनाओं का परिमार्जन आध्यात्मिक जीवन 
                     
आधात्मिक जीवन अस्वस्थ होने में नहीं , स्वस्थ होने में है . यह रोग में नहीं , आरोग्य में है .  पीड़ा में नहीं , प्रसन्नता में है . दमन में नहीं रूपांतरण में है . लेकिन इस मुखर सच को समझने वाले बहुत ही कम हैं . संख्या उनकी ज्यादा है , जो दमन को , स्वयम के प्रति अनाचार को अध्यात्म समझते हैं . ऐसे लोग स्वयम को भले ही कितना समझदार समझें , लेकिन हैं पूर्णत: नासमझ ही .

स्वामी विवेकानन्द के पास एक ऐसा ही अपने को समझदार समझने वाला नासमझ व्यक्ति आया . वह साधुवेश में था . बातों ही बातों में उसने बताया कि वह बाल ब्रह्मचारी है . उसकी सूखी , कृश देह और बुझा निस्तेज चेहरा यह बयान कर रहे थे कि उसने अपने शरीर पर बहुत अत्याचार किया है . स्वामी जी को उस पर बहुत दया आई . वे बोले _ ' अरे भाई ! शरीर को इतना सताने की क्या जरूरत पड़ गयी . ' स्वामीजी के इस कथन पर वह कुछ चौंक - सा गया , क्योंकि उसने दमन को त्याग , अस्वास्थ्य को आध्यात्मिकता , कुरूपता एवं विकृति को योग समझा था . उसने असौंदर्य साधने को ही साधना मान रखा था .

स्वामी विवेकानन्द उसके इस अज्ञान पर हंसे और बोले _ ' तुमने स्वयं को शरीर तक ही क्यों सीमित कर रखा है , शरीर सब कुछ नहीं है . शरीर कुछ है , और कुछ ऐसा भी है , जो शरीर के पर एवं परे है . शरीर को न भोगी बनने देना है और न रोगी . न तो शरीर को उछालते फिरना है और न उसे तोड़ते फिरना है . देह तो बस गेह है , आत्मा का आवास है , उसका स्वस्थ और अच्छा होना आवश्य
आध्यात्मिक जीवन स्वास्थ्य का विरोधी नहीं है . वह तो परिपूर्ण स्वास्थ्य है . वह तो एक लययुक्त , संगीतपूर्ण सौन्दर्य की स्थिति का पर्यायवाची है . शरीर तो बस उपकरण है ; अपना अनुगामी है . तुम जैसे बनते हो , वह वैसा बन जाता है . आध्यात्मिक जीवन का मतलब शरीरिक दमन नहीं , बल्कि विचार , संस्कार और भावनाओं का परिमार्जन , परिवर्तन एवं रूपांतरण है .&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

जहाँ भिक्षा मिलना भी कठिन हो जाये

जहाँ भिक्षा मिलना भी कठिन हो जाये 

                                        

महर्षि शांखल्यायन तथा महर्षि आत्रेय सपत्नीक परिव्रज्या कर रहे थे . राजा वृषादर्भि के राज्य में पहुंचे . दुर्भिक्ष के कारण उन्होंने कहीं भी भिक्षा नहीं मांगी . जहाँ अन्न का अभाव हो , वहां भिक्षा न मांगकर कंद-मूल से ही काम चलाने की ऋषि-गणों की नीति रही है . पर कंद-मूल भी नहीं थे . राज्य में ऋषिगण पधारे हैं , यह जानकारी मिलते ही राजा पर्याप्त मात्रा में अन्न , फल , स्वर्ण- मुद्राएँ एवं रत्न-आभूषण लेकर आया .

ऋषियों ने कहा _  ' हम अगली प्रात: तक के लिए धान्य अपने पास नहीं रखते और निरंतर पर्यटन करते रहते हैं . इस रत्न-राशि का क्या करेंगे ?  राजा ने कहा _  " आप जहाँ कहें , वहां इस भेंट को पहुंचा  दूंगा , फिर आपको भिक्षाटन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी . आप स्वीकार कर लें . '

ऋषि गण बोले _ ' तुम्हारा दान और विनय सराहनीय है , किन्तु हम भी व्रत से बंधे हैं . हाँ , एक बात हो सकती है कि दान के साथ एक दक्षिणा दो कि इस सामग्री के बदले में जितना धन- धान्य तुम्हारे भंडार में हो ; उसे पूरे राज्य में बाँट दो , ताकि दुर्भिक्ष पीड़ितों का राहत मिले . हम तापस हैं . सेवा ही हमारा धर्म है . तुम शासक होने के नाते हमारा दायित्व पूरा करो . '

अस्तु , धर्मसत्ता और राजसत्ता के इस मिलन- संयोग पर इन्द्रदेव भी प्रसन्न हुवे और वरुण दुर्भिक्ष के निवारण हेतु चल पड़े .

लगन पैदा कर फिर देख क्या मिलता है ?

लगन पैदा कर फिर देख क्या मिलता है ?


एक जिज्ञासु अपने गुरु के पास गया . ईश्वर - प्राप्ति की उसे बहुत लगन थी . गुरु मुस्कुरा दिया , कुछ बोले नहीं . फिर दो दिन छोड़कर एवं बाद में हर दिन वह आने लगा . गुरूजी मुस्कुरा कर टाल देते . एक दिन धूप तेज थी . गर्मी के मारे व्यग्रता थी . उसी समय वह युवक आया और फिर वाही प्रश्न पूछा . गुरूजी पहली बार बोले _ ' चलो नदी में स्नान करने चलते हैं . '

दोनों नदी में कूद पड़े . अभी युवक ने गोता लगाया ही था कि गुरूजी ने उसे दबोच लिया . वे अच्छी मजबूत कद-काठी के थे . बड़ी देर तक वे उसे दबाये रहे . काफी देर छटपटाने के बाद छोड़ा तो वह पानी के ऊपर निकला और शिकायत करने लगा कि उन्होंने ऐसा व्यवहार क्यों किया ? गुरूजी ने पूछा _ ' जब तक तू पानी में डूबा था , तुझे सबसे प्रिय क्या लग रहा था ? ' युवक ने गुस्से में उत्तर दिया _ ' महाराज साँस लेने के लिए हवा . ' गुरूजी _ ' उस समय तू जितना व्यग्र था , उतना क्या अभी भी है ? यदि है तो ईश्वर प्राप्त कर लेगा . यदि नहीं तो जा . अपनी ओर से ईश्वर - प्राप्ति के लिए वही लगन पैदा कर . तभी ईश्वर के दर्शन हो पाएंगे . नहीं तो रोज आकर इसी तरह मुझे हैरान करता रहेगा . ' युवक चल पड़ा स्वयं को बनाने के लिए और अपनी पात्रता को विकसित करने के लिए .

बुधवार, 21 सितंबर 2011

तीन प्रश्न और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्तमान

तीन प्रश्न और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्तमान

                                     
                               

प्रसिद्ध साहित्यकार टालस्टाय ने ' तीन प्रश्न ' नामक एक महत्त्वपूर्ण कहानी लिखी है . उसका सार निम्न प्रकार है . किसी समय एक राजा था और उसके मन में तीन प्रश्न उठे __ 1 _ सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य क्या है   2 _  परामर्श के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति कौन है ? 3 _ निश्चित कार्य को आरम्भ करने का सबसे महत्त्वपूर्ण समय कौन-सा है ?

राजा ने सभासदों की बैठक बुलाई , पर कोई समाधान न मिला . मंत्री ने परामर्श दिया कि वन में एक चिंतक ऋषि स्तर के महापुरुष एकांत में रहते हैं . उनका सान्निध्य पाना चाहिए . राजा चल पड़ा . उसने सुरक्षा के लिए आये दल को छोड़कर आगे पैदल जाना पसंद किया . देखा कि वह चिन्तक तो खेत में कुदाल चला रहा है . थोड़ी देर देखता रहा , फिर उसकी निगाह पड़ने पर राजा ने अपने तीन प्रश्न बताये . चिंतक ने राजा को कुदाल दे दी और खेत में तब तक चलाने को कहा , जब तक वह मना न करे .

संध्या हो गयी . इसी बीच एक व्यक्ति दौड़ता हुवा आया एवं राजा के पास भूमि पर गिर पड़ा . उसके कपड़े रक्त से लथपथ थे . दोनों ने उसकी मरहम पट्टी की . अगले दिन सबेरे देखा _ वह घायल व्यक्ति राजा से माफ़ी माग रहा था . राजा को आश्चर्य हुवा . उसने बताया कि वह राजा को अकेला पाकर मारने आया था . उसके भाई को राजा ने फांसी की सजा दी थी . गुप्तचरों ने उसे देखकर हमला कर दिया . राजा ने उसकी प्राणरक्षा की ; अत: वह उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने लगा . यह सब देखकर चिन्तक मुस्कुरा रहे थे .

उन्होंने कहा कि _ ' क्या अभी भी आपको प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला ? पहली बात _  सबसे महत्त्व का काम वह , जो सामने है . मुझे देखकर मेरे श्रम में सहभागी बनना . महत्त्वपूर्ण व्यक्ति वह , जो पास में है तथा वह घायल व्यक्ति जिसको मदद की आवश्यकता थी . एवं सबसे महत्त्व का समय अभी का है _ वर्तमान का है , जिसके सुनियोजन से आपका शत्रु भी मित्र बन गया .


अस्तु , सार यह है कि सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्तमान है . जिसका सदुपयोग हो जाये एवं पूर्ण मनोयोग से लगा जाये तो सर्वांगीण प्रगति सम्भव है .



सोमवार, 19 सितंबर 2011

नियमित उपासना

नियमित उपासना
                                               



ऋषि विश्वामित्र तब ब्रह्मर्षि नहीं बने थे . तपस्या कर रहे थे एवं कठोर साधना में रत थे . श्रेष्ठ तपस्वी -योगी के भी कुछ संस्कार ऐसे रह जाते हैं जो कहीं-न - कहीं अवरोध बन जाते हैं . इंद्र ने मेनका को भेजा . ऋषि की तपस्थली के चारों ओर वसंत छा गया . वे मेनका के सौन्दर्य के समक्ष पराजित हो गये . समय बीता और एक बेटी ने जन्म लिया .

एक सबेरे थोडा जल्दी उठ गये थे . पत्नी मेनका भी साथ उठी . अचानक सूर्योदय देखा . बोले __ ' अरे ! ब्राह्म मुहूर्त्त आ गया और हमने अभी संध्या भी नहीं की . यह तो हमारा नियम था . '  मेनका बोली _  ' नाथ ! आपकी कितनी संध्याएँ निकल गयीं , आपको पता है ? तीन वर्ष बीत गये . दो वर्ष की तो बेटी हो गयी है . '

बोध-प्रबोध हुवा . तुरंत सब छोड़कर पुन: सारा क्रम प्रारम्भ किया . जीवात्मा को होश ही नहीं रहता . कोई - न - कोई संस्कार , भले ही वह एक रह गया हो , अवरोध बन ही जाता है . चित्त-शुद्धि , श्रद्धा के सम्बल एवं नियमित उपासना से उस अवरोध को हटाया भी जा सकता है .

मृत्यु -भय

मृत्यु -भय
                                   
                          

अंतिम दिन की कथा शेष थी . शुकदेव परीक्षित को तक्षक द्वारा काटे जाने से पूर्व श्रीमदभागवत कथा सुना रहे थे . राजा का मृत्युभय दूर ही नहीं हो पा  रहा था . वीतराग शुकदेव ने एक कथा सुनाई _ ' राजन ! एक राजा जंगल में शिकार खेलने गया . वह रास्ता भूल गया और कुछ नहीं मिला तो एक बीमार बहेलिए की झोंपड़ी में ही विश्राम करना करना पड़ा . बाहर हिंसक जन्तु थे . बहेलिया चल-फिर नहीं सकता था , अत, मल-मूत्र वहीँ झोंपड़ी में ही विसर्जित कर देता था . खाने के लिए जानवरों का मांस भी वहीँ लटका रखा था . बड़ी दुर्गन्ध थी , पर कोई विकल्प नहीं था . राजा वहीँ रुक गया .

बहेलिए ने राजा से कहा _  ' आपको दुर्गन्ध भा जाएगी तो आप भी जाना पसंद नहीं करेंगे , इसलिए एक दिन तक ही यहाँ रह सकते हो और इसके बाद यह जगह खाली करनी पड़ेगी . '  राजा ने वचन दे दिया . एक रात में ही राजा पर वह जादू हुवा कि वह राज-काज भूलकर झोंपड़ी छोड़ने का मन ही नहीं बना पाया . प्रात: काल दोनों में खूब विवाद हुवा . बहेलिया झोंपड़ी खाली कराना चाहता था और राजा खाली नहीं कर रहा था .

यह अधूरी कथा सुनाकर शुकदेव बोले _  ' परीक्षित ! बताओ , क्या यह झन्झट उचित था ? ' परीक्षित बोले _ ' ऐसे मूर्ख राजा पर तो मुझे भी क्रोध आता है . '  शुकदेव बोले _  ' परीक्षित ! वह और कोई नहीं , तुम स्वयं हो . इस मल-मूत्र की कोठरी -देह में तुम्हारी आत्मा को जितनी जरूरत थी , वह अवधि पूरी हो गयी है . अब आपको उस लोक में जाना है , जहाँ से आप आये थे . मरने के लिए इतना संताप क्यों ? क्या यह उचित है ? '  परीक्षित संतश्रेष्ठ का संकेत समझ गये . मृत्यु भय भुलाकर पूरे मन से अंतिम दिन की कथा का श्रवण किया और यही सही जीवन-नीति है .&&&&&&&&&&&&&&&

ब्रह्मदर्शन होते ही शांत

ब्रह्मदर्शन होते ही शांत

                                                    

ब्रह्मदर्शन होते ही मनुष्य चुप हो जाता है . जब तक दर्शन न हो तब तक विचार होता रहता है . घी जब तक पक न जाये तभी तक आवाज करता है . पके घी से शब्द नहीं निकलता . उसी तरह समाधिस्थ पुरुष जब लोक-शिक्षण के लिए नीचे उतरता है तो तभी बोलता है .

जब तक मधुमक्खी फूल पर नहीं बैठती तभी तक भनभनाती है . फूल पर बैठकर मधु पीना शुरू करते ही चुप हो जाती है .

तालाब में घड़ा भरते समय भक-भक आवाज होती है . घड़ा भर जाने के बाद फिर आवाज नहीं होती . और यही स्थिति ज्ञानी की होती है .    ___     श्री रामकृष्ण परमहंस विचार

मेहमान की सेवा ही प्रभु सेवा

मेहमान की सेवा ही प्रभु सेवा 
                                           

अनमीषी को अपने ज्ञान के कारण ' अक्षर महर्षि ' कहा जाता था . वे निरंतर आश्रम में ब्रह्मचारियों का शिक्षण करते तथा लोक-शिक्षण के लिए समर्पित जीवनव्रती स्नातक समाज को देते . उनके आश्रम की आर्थिक व्यवस्था नागरिक उठा लेते थे . एक दिन एक संत आश्रम में पधारे . उन्होंने कहा _ ' आप अन्नदान दें , जिससे सदावर्त चलाया जा सके . '

ऋषि बोले _ ' मेरे पास तो ज्ञान-धन है , उसी को लुटाता रहता हूँ . ' संत बोले _  ' ऋषिवर ! अन्न भी तो आपके द्वारा उपार्जित धन है . उसका एक अंश लोक-मंगल के लिए लगना चाहिए . मात्र अपने लिए खाने वाले को तो पापी कहते हैं . ' ऋषि को ज्ञान मिला . उन्होंने कहा कि यथाशक्ति इसका निर्वाह करूंगा . और अपनी जीवन सहचरी से वार्ता की .

अब दम्पति नित्य किसी क्षुधापीड़ित को पहले भोजन कराते , फिर अन्न-जल ग्रहण करते थे . एक दिन ऐसा योग आया कि कोई भी आश्रम के द्वार पर नहीं आया . प्रतीक्षा में पूरा दिन निकल गया . दोनों ही सत्पात्र की खोज में निकल गये .

एक पेड़ के नीचे एक वृद्ध कुष्ठ रोगी पीड़ा से कराहता मिला . उन्होंने उसे सहारा देकर आश्रम ले चलने की बात की और सेवा का अवसर माँगा . वृद्ध बोला _  ' मैं चांडाल हूँ . आश्रम कैसे जाऊं ? आप सामग्री यहीं ले आइये और यहीं ले लूंगा .  '  ऋषि बोले _  ' भगवन ! आप अतिथि हैं . हम इन मिथ्या मान्यताओं को नहीं मानते . आप-हम एक ही परमात्मा के अंश हैं _  चलिए . '  प्राथमिक सहायता के बाद स्नान करवाया और उसके बाद महर्षि दम्पति ने भोजन करवाया . रात्रि को स्वप्न में परमात्मा ने दर्शन दिए और कहा _  ' यही सच्चा धर्म है अनामिषी ! '                                                            


पनामा _नहर

कुदरत का एक अद्भुत नजारा __ पनामा नहर

                                           
        

पनामा नहर कुदरत का एक अद्भुत नजारा हमें दिखाती है . यह नहर 1904 में बनना प्रारम्भ हुयी और 1914 में पूरी हुयी . यह अटलांटिक महासागर से प्रशांत महासागर को जोड़ती है एवं 77 किलोमीटर ( 48 मील ) लम्बी है . इसमें से जहाज गुजरते हैं . एक तरफ संयुक्त राज्य अमेरिका है तो दूसरी ओर पनामा देश . यहाँ एक सेंचुरी क्लब है , जहाँ बैठकर आप एक महासागर में सूर्यास्त एवं थोड़ी देर बाद ही दूसरे महासागर में सूर्योदय एक साथ देख सकते हैं .

यह नहर 5 मील चौड़ी है . यहाँ सूर्य प्रशांत महासागर में उदय होता है और अटलांटिक महासागर में अस्त होता है . इस अद्भुत दृश्य का कारण है कैनाल की भौगोलिक स्थिति . उत्तर-पश्चिम से यह दक्षिण-पूर्व की ओर जाती है . प्रशांत महासागर में जब यह प्रवेश करती है तो वह और भी पूर्व की ओर होता है .

अगर आप सेंचुरी क्लब पनामा में शाम को बैठें तो अटलांटिक महासागर में अस्त होता सूरज देखेंगे , परन्तु जैसे ही उधर अँधेरा शुरू होगा , आप अचानक पूर्व की ओर प्रशांत महासागर में सूर्य की लालिमा देखेंगे और गेंद की तरह ऊपर आता सूरज . प्रकृति का यह नजारा बस ! यहीं देखने को मिलता है . यह बहुत ही विलक्षण एवं अद्भुत दृश्य होता है .


रविवार, 18 सितंबर 2011

कर्त्तव्यों का निष्ठा पूर्वक पालन

कर्त्तव्यों का निष्ठा पूर्वक पालन

                                                    

पति का अकाल निधन होने पर साध्वी रोहिणी ने कठोर परिश्रम करके अपने एक मात्र  पुत्र के प्रखर प्रशिक्षण की व्यवस्था बनाई . उसका पुत्र देवशर्मा अपने समय के श्रेष्ठ विद्वानों में गिना जाने लगा . तपश्चर्या भी वह कर ही रहा था . उसे अपनी मुक्ति , अपना स्वर्ग अधिक प्रिय लगा तो वह माँ और छोटी बहन को बिलखता छोड़कर तीर्थाटन पर निकल गया और नंदीग्राम के एक मठ में और ऊंची साधना करने लगा . एक दिन नदी तट पर आसन डालकर बैठा था . गीला चीवर सूख रहा था , तो देखा कि एक बगुला व एक कौवा चीवर को चोंच में दबाकर उड़ने ही जा रहे हैं . उसने क्रोधपूर्ण दृष्टि से पक्षियों की ओर देखा . साधना-जन्य देह से ज्वाला निकली और दोनों पक्षी जलकर राख हो गये . देवशर्मा को लगा कि समस्त भूमंडल पर उन जैसा दूसरा सिद्ध कोई नहीं .

रास्ते में नगर में भिक्षा लेते हुवे मठ जाने की बात सोची तो गृहस्थ के द्वार पर आवाज लगाई . जवाब से मिला ऐसा लगा कि गृहस्वामिनी अंदर है . फी दो तीन - बार पुकार लगाई . धैर्य था नहीं . अंदर से बराबर आवाज आती _ ' कृपया प्रतीक्षा करें . अभी आती हूँ . साधना कर लूँ . तब भिक्षा दूंगी . ' देवशर्मा बोले _ ' परिहास करती है . जानती है , इसका परिणाम क्या होगा ? ' अंदर से आवाज आई _ ' मैं जानती हूँ आप शाप देना चाहते हैं , पर मैं कौवा या बगुला नहीं हूँ . जो तुम्हारी कोप-दृष्टि से जल जाऊं ? जिसने तुम्हें जीवन-भर पाला , बड़ा किया , उन्हें त्यागकर मुक्ति चाहने वाले साधु तुम मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते . '

देवशर्मा की सिद्धि का अहं चूर -चूर हो गया . यह तो सब जानती है . भिक्षा देने बाहर आई गृहस्वामिनी से पूछा _ ' कौन - सी साधना करती हैं ? आप मेरे बारे में सब कैसे जान गयी ? ' वह बोली _ ' मैं कर्त्तव्य की साधना करती हूँ . पति बच्चे , परिवार , समाज , देश के प्रति कर्त्तव्यों का निष्ठा पूर्वक पालन करती हूँ . उसी की सिद्धि है यह . ' तभी देवशर्मा वापिस लौट पड़े अपनी माँ के पास कर्त्तव्यों को पूरा करने हेतु .                       

बुधवार, 7 सितंबर 2011

वन्दे मातरम् !

वन्दे मातरम !                                                        

सुजलां, सुफलां , मलयज- शीतलाम

शस्यश्यामलाम , मातरम ! वन्दे मातरम !

शुभ्रज्योत्स्नाम , पुलकितयामिनीम , फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम

सुहासिनीम सुमधुर भाषिणीम , सुखदाम , वरदाम मातरम !

वन्दे मातरम् !

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

स्वतन्त्रता का उभय मार्ग

स्वतन्त्रता का उभय मार्ग


                                                           

हमारा सारा सामर्थ्य उभय मार्गी है . अगर विपरीत हम न कर सके , तो सामर्थ्य है ही नहीं . जैसे किसी आदमी को हम कहें कि तुम ठीक करने के लिए हकदार हो . लेकिन गलत करने कि तुम्हें स्वतन्त्रता नहीं है . तुम्हें मात्र ठीक करने की स्वतन्त्रता है . तो समझो स्वतन्त्रता ख़तम हो गयी . स्वतन्त्रता का अर्थ ही यह है कि गलत करने की भी स्वतन्त्रता हो . तभी ठीक करने की स्वतन्त्रता का कोई अर्थ है .

चेतना स्वतंत्र है . स्वतन्त्रता चेतना का गुण है . स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि दोनों तरफ जाने का उपाय है . हम गलत भी कर सकते हैं . गलत करने की स्थिति में ही ठीक को खोजने की सुविधा है . हर आदमी सोचता है कि मैं सदा स्वस्थ रहूँ और कभी बीमार न पडूँ . लेकिन आपको पता नहीं कि आप जो चाह रहे हैं वह नासमझी से भरा पड़ा है . अगर आप कभी बीमार नहीं होंगे , तो आपको अपने स्वस्थ होने का पता ही नहीं लगेगा . अगर आप दुखी नहीं होंगे , तो सुखी होने का अहसास कैसे कर पाएंगे . अगर आपको केवल सत्य ही मिला होता और असत्य की तरफ जाने का कोई मार्ग ही नहीं होता , तो सत्य मूल्यहीन ही हो जाता . उसका मूल्य आपको कभी भी पता नहीं चलता . सत्य का मूल्य इसलिए है कि क्योंकि उसे हम उसे खो सकते हैं .

अगर परमात्मा ? ऐसा हो जिसे आप खो ही नहीं सकें , तो आप परमात्मा से ऊब जायेंगे . परमात्मा से ऊबने का कोई उपाय ही नहीं है . क्योंकि पल में आप उसे खो सकते हैं . और जिस दिन आप संसार से ऊब जाएँ , उसी क्षण आप परमात्मा में लीन हो सकते हैं . जो भी जीवन में है , वह अकारण नहीं है . दुःख है , संसार है , बंधन है और ये सब अकारण नहीं हैं . इनकी उपादेयता है . यह कि ये सब अपने से विपरीत की ओर इशारा करते हैं .

आपकी चेतना बंध सकती है , क्योंकि आपकी चेतना स्वतंत्र हो सकती है . ओर यह आपके हाथ में है . जब मैं कहता हूँ कि आपके हाथ में है तप आपको ऐसा लगता है कि मैं इसी समय स्वतंत्र क्यों नहीं हो जाता ? लेकिन समस्या यह है कि आप सोच तो स्वतंत्र होने के बारे में रहे हैं और सरे कार्य-कलाप बंधे रहने के लिए कर रहे हैं .

एक मित्र मेरे पास आये . बोले कि मन बहुत अशांत है . शांति का कोई उपाय बताएं . मैंने उनसे पूछा , पहले यह बताएं कि आपका मन अशांत क्यों है ? ऐसा न हो कि मैं आपकी शांति का उपाय बताऊँ और आप अशांति का उपाय कए चले जाएँ . तब तो कोई समाधान नहीं निकलेगा , बल्कि अशांति और बढ़ती चली जाएगी . ऐसी हालत हो जाएगी कि एक आदमी कार में एक्सीलेटर भी दबा रहा है और ब्रेक भी लगया जा रहा है . कार की तकनीक ऐसी है कि एक ही पैर से ब्रेक ब्रेक व एक्सीलेटर दबाया जाता है . आप चाहें , तो दोनों कार्य एक साथ भी कर सकते हैं कि ब्रेक व एक्सीलेटर दबा दें . बेशक ऐसी स्थिति में बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाएगी . इसलिए अशांति को रोकने वाला ब्रेक दबाना है , तो पहले अशांति बढ़ाने वाले एक्सीलेटर से पैर तो हटाना ही पड़ेगा . __ ओशो *****


                                                               




                                                                               

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

प्राणायाम और धारणा

प्राणायाम और धारणा

                                          

प्राणायाम के अभ्यास से अंधकार का आवरण क्षीण होने लगता है . जिन्हें भी योग-विद्या के प्रयोग एवं परिणाम का अनुभव है ; उन्हें यह पता है कि  सात्विकता ही प्रकाश  का परिचय एवं पर्याय है . इसके विपरीत तमस अन्ध्यारे का द्योतक है . रजस की अवस्था मध्यवर्ती है . इसमें अँधियारा घना तो नहीं होता , परन्तु प्रकाश भी नहीं होता . चित्त-चिन्तन एवं चेतना में निषेधात्मक कर्मों , भावों एवं विचारों की जितनी गहरी परतें चढ़ती जाती हैं तो सात्विकता क्षीण होती जाती है और अन्ध्यारे का आवरण घना व गहरा होता जाता है . प्राणायाम की प्रक्रिया से यह तमस का आवरण देह , प्राण एवं मन से क्रमिक रूप से हटता और मिटता चला जाता है . 

इसी क्रम से इसके परिणाम भी जीवन में उभरते हैं . जिन्होंने सही एवं सम्यक विधि से प्राणायाम शुरू किया , उन्हें अपने जीवन में सबसे पहले स्वास्थ्य का वरदान प्राप्त होता है . उनकी देह अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ एवं क्रन्तियुक्त हो जाती है . शरीर के सभी अंग अवयव सही व सुचारू रूप से कार्य करने लगते हैं . प्राणायाम यदि सही एवं सम्यक ढ़ंग से नियमित व दीर्घ काल तक किया जाता रहे तो न केवल परिस्थितिजन्य रोग ठीक होते हैं , बल्कि जटिल -कठिन प्रारब्द्ध-जन्य रोग भी ठीक होने लगते हैं . दूसरे क्रम में इसके परिणाम प्राण के तल पर साहस , शौर्य आदि के रूप में उभरने लगते हैं . यह प्रयास यदि गहरा होता जाये तो स्वत: ही व्यक्ति व व्यक्तित्व में सद्भाव एवं सद्विचारों का विकास होता होता है , जो क्रमिक रूप से सद्ज्ञान एवं सद्विवेक रूप में प्रकट होता है . प्राणायाम की दीर्घता व सूक्ष्मता प्राप्त होने पर एक अवस्था ऐसी भी आती है , जब तमस व रजस के आवरण क्षीण हो जाते हैं और सात्विकता का प्रकाश और उसकी प्रभा पूरे व्यक्तित्व मे छा जाती है .

इसके प्रभाव की चर्चा महर्षि ने अपने अगले सूत्र में की है _ ' धारणासु च योग्यता मनस: ' अर्थात धारणाओं में मन की योग्यता भी हो जाती है . महर्षि का यह सूत्र अपूर्व एवं अद्भुत होने के साथ कई सूक्ष्म सत्य स्वयं में संजोये हुवे है . धारण कुछ भी करना हो इसके लिए आवश्यक है पात्र का होना . पात्र न हो तो प्राप्ति से भी वंचित रहना पड़ता है . प्रकृति एवं परिस्थितियाँ देना चाहें और अवसर भी सहज सुलभ हो जाएँ ; तो भी पात्र एवं पात्रता के बिना व्यक्ति को वंचित ही रहना पड़ता है . इस दृष्टि से विचार किया जाये तो प्राणायाम के प्रयोग से योगसाधक सुपात्र बनता है , उसकी पात्रता विकसित होती है . यही पात्रता उसे धारणा के योग्य बनाती है .

युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव अपनी आध्यात्मिक वार्ताओं में कहा करते थे की प्रकृति पात्र को कभी वंचित नहीं करती है है और कुपात्र को कभी कुछ मिलता नहीं है . यदि संयोगवशात कभी कुछ मिल भी जाये तो मिला हुवा टिकता नहीं है . उनका कहना था की कुछ लोग धारणा को एकाग्रता मान लेते हैं , परन्तु ऐसा है नहीं . एकाग्र होने पर तो सिर्फ धारणा की झलक मिलती है . धारणा तो धारण करने की क्षमता है _ कुछ वैसे ही , जैसे कि विवाहित स्त्रियाँ गर्भ धारण करती हैं . उनके द्वारा यह गर्भ धारण करना उनके गर्भाशय के शुद्ध और स्वस्थ होने की क्षमता पर निर्भर करता है . बस , इसी तरह योगसाधक के चित्त को भी शुद्ध एवं स्वस्थ होना चाहिए .

चित्त , चिन्तन एवं चेतना में  जब रजोगुण छाया रहता है तो वासनाएं , कामनाएं एवं लालसाएं पूरे अस्तित्व में हावी रहती हैं . संशय , संदेह एवं भ्रम का जाल भी रहरहकर कसता व जकड़ता रहता है . ऐसी अवस्था में चित्त धारण तो करता है , पर निषेधात्मक एवं नकारात्मक सत्यों को प्रकाशित करने वाली बात उसे समझ में नहीं आती . सद्विवेक एवं सद्ज्ञान उसे आडम्बर लगते हैं . सारा समय स्वार्थ और अहंकार पूरा करने के लिए सोचते व जुगत लगते बीतता है . इस अवस्था में जाग्रति तो है , पर दिशा नहीं है .

लेकिन जब प्राणायाम के प्रभाव से रजस व तमस की परतें टूटती हैं , तब स्थिति , अवस्था व दशा में चमत्कारी परिवर्तन होते हैं . जड़ता टूटती है , साथ ही वासनाएं , कामनाएं व लालसाएं भी तिरोहित हो जाती हैं . सद्ज्ञान , सद्विवेक स्वत: ही जागृत हो उठते हैं . उच्चस्तरीय व आध्यात्मिक जीवन के प्रति जिज्ञासा जगती है . योग साधक की अन्तश्चेतना परिपूर्ण रूप से प्रकाशित हो उठती है . तब मन धारणा की योग्यता पा लेता है . ऐसी अवस्था में मन माँ की भांति हो जाता है . माँ बच्चे को नौ महीने अपने भीतर धारण करती है . वह उसे बीज की भांति सम्भालती है . सम्भवत: इसीलिए शास्त्रों में स्त्री को धरती भी कहा गया है  . 
क्योंकि माँ बच्चे को धारण करती है , बच्चे के बीज को _ ठीक उसुई तरह , जैसे कि धरती वृक्ष के बीज को महीनों तक धारण करती है . जब बीज धरती में निश्चिन्त हो जाता है , तभी उसकी खोल टूटती है और वह अंकुरित होता है . कुछ इसी तरह सात्विक चित्त भी प्रकाश व पवित्रता को धारण करने के योग्य हो जाता है . वह उच्चस्तरीय धारणा के बीज को भी सहेजता है . तप , ज्ञान एवं भक्ति से उसे सिंचित करता है . इसी के साथ धारणा का भी परिपाक होता रहता है . तप , ज्ञान व भक्ति की साधना गहराने के साथ धारणा परिपक्व होती जाती है . परिशोधित प्राण उसे पुष्ट करता रहता है .__ अखंड-ज्योति *****


गुरुवार, 18 अगस्त 2011

मन का सामर्थ्य बढ़ाएं

मन का सामर्थ्य बढ़ाएं

                                               
                        

मन बड़ा ही चंचल एवं संवेदनशील होता है . 

मन में उठने वाला चिन्तन यदि नकारात्मक है तो व्यक्ति उदास और दुखी हो जाता है और यदि वह सकारात्मक है तो व्यक्ति का मन इन घटनाओं से जीवन का अनुभव ग्रहण करता है और जीवन के अग्रिम मार्ग को प्रशस्त करता है .

मन जितना संवेदनशील होता है , उतनी ही दूरी की तरंगों को महसूस करता है . अधिकतर लोगों का मन अपने परिजनों से इतना जुड़ा होता है कि उनके सुख-दुःख , बीमारी के समय कष्ट-पीड़ा को वे जान जाते हैं .

यदि मन शांत , स्थिर , जाग्रत एवं संवेदनशील है , तब निश्चित तौर पर इन घटनाओं का पूर्वाभास किया जाता है . इसी के आधार पर अनेक व्यक्तियों ने भविष्य - वाणी की हैं और वे सत्य प्रमाणित हुयी हैं . ध्यानी , योगी व्यक्ति इन घटनाओं को अपने दिव्य चक्षुओं से देख भी लेते हैं और आवश्यक प्रयोग पीड़ा-निवारण एवं नव-सृजन हेतु करते हैं .

यदि मन कमजोर है तो जिन्दगी के कठिन झंझावातों से जूझ पाना आसन नहीं होता ;जल्दी निराशा होती है और अवसाद घेर लेता है . 

ऐसी अवस्था में जरूरत है मन को विकसित करने की , उसकी प्रतिरोधक क्षमता ( इम्यूनिटी ) बढ़ाने की , ताकि किसी भी कठिन या दुखद परिस्थिति में वह टूटकर गिरे नहीं


मन की क्षमता और सामर्थ्य बढ़ाने के लिए कुछ अभ्यास किए जा सकते हैं ; जैसे _ नियमित स्वाध्याय , सत्संग , स्व - संकेत _ अर्थात अच्छे विचारों के पूरे विश्वास के साथ दोहराना अपने सामर्थ्य को सक्षमता के पूर्ण बिंदु तक स्व -चिन्तन द्वारा प्रयास करना , पौष्टिक आहार , पर्याप्त श्रम एवं उपासना .

मन का सामर्थ्य बढ़ाने में उपासना की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है . अत: मन की क्षमता बढ़ाने के लिए उपासना , साधना और स्वाध्याय का सतत अभ्यास करना चाहिए . इससे मन शांत और स्थिर होता है और उसकी क्षमता में भी  आश्चर्यजनक वृद्धि होती है .****** _ AKHAND JYOTI
                                                                          
                                                                

याद करने की कला

याद करने की कला 
                                      

पढ़ना एक कला है . यह कला बताती है कि हम कैसे पढ़ें ? ताकि विषय की सही समझ पैदा हो सके और इसे हम ठीक - ठीक ढ़ंग से अभिव्यक्त एवं प्रतिपादित कर सकें . विद्यार्थी पढ़ता  है तो उसे विषय को समझ होनी चाहिए एवं शिक्षक पढ़ता है तो उसे बेहतर ढ़ंग से अभिव्यक्त करना आना चाहिए , परन्तु पढ़ना तो दोनों को पढ़ना पड़ता है . एक को अपनी परीक्षा के लिए पढ़ना पड़ता है तो दूसरे को उसे समझाने के लिए . यह भी आवश्यक है कि पढ़ाई में रूचि पैदा हो , जिससे पढ़ने का कार्य सुचारू रूप से चलता रहे . रूचि तब पैदा होती है जब विषय का उद्देश्य एवं औचित्य का ज्ञान हो .

रुचिपूर्वक पढ़ना तबी सम्भव हो पाता है , जब हमें उस विषय के उद्देश्य का पता हो कि आखिर हम उसे पढ़ क्यों रहे हैं और विषय का हमारे जीवन से क्या सम्बन्ध है ? जब तक यह बात स्पष्ट नहीं हो पाती कि विषय का औचित्य क्या है और उसकी हमारे निजी जीवन में क्या उपयोगिता है एवं आवश्यकता है ? तब तक विषय गधे की पीठ पर चन्दन कि लकड़ी को ढ़ोने के समान भारवत ही प्रतीत होता है . गधा चन्दन को ढ़ोता तो रहता है , परन्तु वह उसके महत्त्व एवं सुगंध से वंचित बना रहता है . ठीक इसी प्रकार हम भी विषय को ढ़ोते रहते हैं , पर हमें यह भी पता नहीं रहता कि जिस कक्षा में हम पढ़ते हैं , उसका पाठ्यक्रम क्या है और क्यों है ? सब कुछ एक बोझ-सा र्य्ची-हीन मालूम पड़ता है , परन्तु ठीक इसके विपरीत जब हमें विषय का लाभ एवं उपयोगिता की जानकारी हो जाती है तो रूचि स्वत: पैदा हो जाती है और हमारा मन पढ़ने में रमने लगता है .

पढ़ने के लिए हमें अपनी क्षमताओं का अनुभव होना चाहिए . ये क्षमताएं हैं _  आंतरिक , सीखना , अभिव्यक्ति एवं स्मरण -शक्ति . आंतरिक  क्षमता के अंतर्गत हमारी समझ कितनी है , यह आता है . इसमें यह देखने की बात है कि हमारी क्षमता इतनी है कि हम विषय का निर्वाह कर सकें या उसे समझ सकें . यदि हमारी क्षमता यह नहीं है कि हम गणित को समझ सकें और इसके उपरांत गणित की पढ़ाई करें तो विषय हमें कभी भी समझ में नहीं आएगा , क्योंकि इसके लिए हमें जितनी मानसिक ऊर्जा को इसमें लगाना पड़ेगा , उतनी हम नही लगा सकते . यदि हम इसमें अपनी मानसिक ऊर्जा नहीं लगायेंगे तो यह हमारे सिर के ऊपर से निकल जायेगा . हम गणित की किताब लेकर बैठे रहेंगे , पर पल्ले कुछ नहीं पड़ेगा . शिक्षक पढ़ाकर निकल जायेगा , पर हम अपनी ही उधेड़बुन में फंसे रह जायेंगे और कुछ भी समझ में नही आएगा .

विषय की समझ पैदा करने के लिए आवश्यक है कि हमारी मन:स्थिति उस विषय के साथ सम्बन्धित हो जाये और जैसे ही यह सम्बन्ध-सूत्र जुड़ने लगता है तो विषय की समझ पैदा होने लगती है . फिर हम विषय की गहराई के साथ-साथ उसके विस्तार एवं व्यापकता को जानने लगते हैं और इसके साथ ही हम एक विषय को अन्य विषयों के साथ जोड़कर देख सकते हैं एवं वह अपने जीवन में कितना उपयोगी एवं आवश्यक है , यह भी समझ सकते हैं . जब यह समझ पैदा हो जाएगी तो हमारी सीखने की क्षमता भी विकसित हो जाएगी . इसके बाद हम उस विषय को और अधिक गहराई से सीखने का प्रयास करेंगे .

सीखने की क्षमता विकसित हो जाने पर हम अपरिचित विषय के साथ भी गहरा तारतम्य जोड़ सकते हैं . यह कला आ जाने से हम अनेक नये विषयों को एक साथ सम्बन्धत करके समझने लगते हैं एवं तुलना कर सकते हैं . इससे हमारा बौद्धिक विकास होता है . विषय की मूल वस्तु एवं मुख्य बिन्दुओं का ज्ञान हो जाने से वह विषय सीखने और समझने में अत्यंत आसान हो जाता है . इस प्रकार हम उस विषय का बेहतर ढ़ंग से निर्वाह कर सकते हैं . फिर उसे यद् करने की आवश्यकता नहीं पडती है . याद तो तब करना पड़ता है , जब हमें विषय समझ में नहीं आता है . समझ आ जाये तो विषय स्वत: स्मृति-पटल पर अंकित हो जाता है . इसलिए उपनिषद कहता है कि विषय की बेहतर समझ पैदा करो , उसे याद नहीं करो .

सामान्य रूप   से विद्यार्थी अपने विषय को विभिन्न प्रकार से याद करता है और अपने दिमाग को उससे सम्बन्धित आंकड़ों से ठूंसने - भरने लगता है . दिमाग प्रश्नों का खजाना बन जाता है , पर परीक्षा के समय यदि किसी प्रश्न का उत्तर याद नहीं आया और उसके परिणाम स्वरूप तनाव पैदा हो गया तो फी स्थिति इतनी विपिन्न एवं भीषण हो जाती है  कि कहा नहीं जा सकता है . ऐसे हमारा दिमाग खिचड़ी बन जाता है और प्रश्नों का गलत उत्तर आने लगता है .

दिमाग की एक निश्चित ख़ास बनावट एवं बुनावट होती है . किसी चीज को कैसे याद किया जाये ? उसके लिए उसे उस बुनावट के संग तारतम्य रखना पड़ता है . इस तारतम्य में तब व्यतिक्रम आता है जब भावनात्मक असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती है . भावनात्मक स्थिरता में स्मरणशक्ति अपने चरम पर होती है , परन्तु अस्थिर अवस्था में यह अत्यंत खतरनाक एवं हानिकारक होती है . ऐसी  स्थिति में सोच-समझ , स्मृति एवं अभिव्यक्ति - क्षमता तहस -नहस हो जाती है और भारी क्षति होती है एवं कुछ भी याद नहीं रहता , सबकुछ क्षत - विक्षत खंडहर में परिवर्तित हो जाता है .  सारी मेहनत , ऊर्जा और समय का कोई मूल्य ही नहीं रह जाता है . अत: हमें भावनात्मक सम्बन्धों स्थिर बनाये रखना चाहिए , ताकि हमारी ऊर्जा , श्रम एवं समय विषय-वस्तु की समझ पैदा करने में नियुक्त हो सके .


विषय की समझ हो और उसमें रूचि पैदा हो जाये तो उसकी अभिव्यक्ति हो सकती है . इस सन्दर्भ में विद्यार्थी विषय को बेहतर ढ़ंग से प्रस्तुत कर सकता है और शिक्षक उसे प्रतिपादित कर सकता है और अभिव्यक्त कर सकता है . इस प्रकार पढ़ने में रूचि उत्पन्न होती है और हम ढ़ेर सारे नये विषयों को प्रति आकर्षित होते हैं एवं उसे पढ़ने लगते हैं .  इस तरह हम सामान्य पढ़ाई को रुचिकर बनाते हुवे स्वाध्याय के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं , जहाँ हमारे आंतरिक विकास की सम्भावनाएं खुल जाती हैं .

                                                                             
                    

सोमवार, 15 अगस्त 2011

गायत्री रहस्य

गायत्री रहस्य


                                         


इस ' भू: , भुव: , स्व: ' का ही संक्षिप्त रूप ' ॐ ' है . ध्वनि-मात्र का आदि मूल ' अ ' और स्थान कंठ है . मध्य ' उ ' और स्थान मुख का मध्य है . ' म ' सब संगीतमयी 

ध्वनियों का अंत है और सत्यत: ध्वनिमात्र का अंत है . क्योंकि यही एक अक्षर है जो मुख बंद करने पर भी बोला जाता है और इसका स्थान ओष्ठ है . मकार ही एक 

ऐसा अक्षर है जो समाप्ति का सूचक है अर्थात परमसुख का सूचक है . इसलिए यह ' स्व: ' का अर्थात परम सुख का सूचक है . इनमें से एक-एक अंश  का 
ही अभ्यास करें तो मनुष्य का पूर्ण परिपाक नहीं होगा . पूर्ण परिपाक करने वाला तो ' भूर्भव: स्व: ' का समन्वय है . इसलिए उस समन्वय को ' भर्ग: ' अर्थात 

ठीक परिपाक करने वाला कहा गया है . _
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रविवार, 14 अगस्त 2011

उपासना

उपासना

                                         

हम प्रभु की उपासना क्यों करना चाहते हैं ? इसका उत्तर सरल और स्पष्ट है क्योंकि प्रभु हम सबको प्यार करता है . वह जीवन भर हमारे साथ रहा है और सदा हमारे साथ रहेगा . सम उसकी समानता में एक बच्चे के समान हैं और वह हमारा पिता है .

वह हमारा पिता , बन्धु , सखा , माता , गुरु आदि है . उसका आभार हमें व्यक्त ही करना चाहिए . उसका धन्यवाद करना अपेक्षित है . वह हमारे अनंत मार्ग में सदा सहायक रहा है . इसलिए नहीं कि वह उसको धन्यवाद की अपेक्षा है , इसलिए नहीं कि वह क्या लालसा करता है कि सब प्राणी उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करें . इससे इसकी महत्ता में कोई वृद्धि नहीं होती -- परन्तु इससे हममें विनम्रता का विकास होगा , जिसकी अपने जीवन में उत्पन्न करने की महती आवश्यकता है . विनम्रता एक विशिष्ट गुण है , जो हममें होना चाहिए . वास्तव में हमें इस पर कुछ भी व्यय नहीं करना पड़ता . जैसे आप किसी से मिलते हैं तो प्यार भरे शब्दों में कुछ न कुछ सम्बोधन करते ही हैं .

वह हमारे निरंतर साथ रहा है . तो क्या बदले में हम उसको भूल जाएँ ? कम से कम वह तो हमें नहीं भूलता . हम उससे प्रेम के सूत्र में बंधे हैं . हमें ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए की असत से सत की ओर , अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर हम बढ़ते जाएँ . और यही सच्ची प्रार्थना है . इसी उपासना का सदा महत्त्व होता है. उपासना द्वारा उस प्रभु की स्तुति इसलिए करते हैं ताकि उसके गुणों का हममें समावेश हो जाये . हमारी उपासना सर्व मान्य होनी चाहियें ; वे स्वार्थ की भावना से रहित सर्वार्थ की भावना से आपूरित हों ......... तभी वह उपासना कल्याणमयी और हितकारी बन सकती है .   ..........

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

धन कमाइए पर उद्देश्य कुछ और हो

धन कमाइए पर उद्देश्य कुछ और हो 

                                                    

संसार में उचित जीवन यापन के लिए धन अनिवार्य है . धन  के आभाव में मनुष्य के सभी गुण निरर्थक से लगते हैं और समाज में जो सम्मान मिलना चाहिए वह भी नहीं मिल पाता . दरिद्रता का पहला अभिप्राय यह है की मनुष्य सम्पन्न व्यक्तियों में पहुंचकर संकुचित-सा अनुभव करता है . प्रत्येक समय हीनता के अनुभव के कारण उस व्यक्ति का तेज नष्ट हो जाता है . निस्तेज व्यक्ति को कोई भी और कभी भी दुत्कार देता है . इस प्रकार तिरस्कृत व्यक्ति उदास रहने लगता है और उदासीन व्यक्ति को धीरे-धीरे शोक घेर लेता है और शोकातुर व्यक्ति की बुद्धि ठीक से कार्य नहीं करती . परिणामत: बुद्धि-हीन व्यक्ति का विनाश हो जाता है . इसलिए निर्धन होना सब आपत्तियों का घर है .


कविवर कालिदास ने कहा है  _दरिद्रता ऐसा दुर्गुण है जो सभी गुणों को नष्ट कर देता है . वैदिक प्रार्थनाओं में कहा गया है _ ' वयं स्याम पतयो रयीणाम ' अर्थात हमारे समाज में सभी मनुष्य ऐश्वर्यशाली हों . वेद संसार में मानव-जीवन को सम्पन्न , सुखी और उत्तम गुण - कर्मों का केंद्र बनाने की प्रेरणा देता है . वेद के अनुसार धन संसार में बहुत कुछ है , किन्तु सबकुछ नहीं है . धन के ऊपर धर्म का न्यन्त्रण रहना चाहिए . जहाँ यह अंकुश नहीं रहता , वहां कभी न बुझने वाली विलासिता की आग जल उठती है .


धन को अपेक्षित महत्त्व तो देना ही चाहिए . इसमें दो बातों की सावधानी आवश्यक है _ पहली अर्जन - प्रक्रिया और दूसरी उपभोग की मर्यादा . धन को परिश्रम पूर्वक कमाना चाहिए , धन संग्रह का नाम नहीं अपितु उसके समुचित वितरण पर विशेष ध्यान देना चाहिए . ' तेन त्यक्तेन भुंजीथा : ' का सिद्धांत अपनाना चाहिए . धर्म , अर्थ . काम और मोक्ष के अनुसार क्रमश: धर्मानुसार अर्थ का उपार्जन और उस अर्थ को सतकार्यों में लगाना ही मोक्ष का द्वार हो सकता है .   ****** साभार _अखंड ज्योति 
   
                                                               
        


सोमवार, 18 जुलाई 2011

जीवन का लक्ष्य मनुष्य बनना

जीवन का लक्ष्य मनुष्य बनना  

                                       


जीवन में लक्ष्य का बड़ा महत्त्व होता है . मनुष्य अपने जीवन में जिस लक्ष्य का निर्धारण कर लेता है तो उसी प्रकार उसकी जीवन-शैली बन जाती है . सबसे पहले व्यक्ति को मनुष्य बनना पड़ता है . पहले मनुष्य संसार के व्यवस्थापक प्रभु के दिव्य गुणों को मनुष्य समझे और फिर उन गुणों को समझकर अपने जीवन में धारण करे . तभी इस शरीर में मनुष्यता का जन्म होता है , केवल मानव - आकृति धारण करने से नहीं .



ज्ञान का लाभ तभी है जब वह आचरण का अंग बन जाये . क्योंकि जानना , मात्र जानने के लिए नहीं ; अपितु कुछ करने के लिए है . जो ज्ञान कर्म के साथ नहीं जुड़ता , वह निरर्थक है , वाहक के ऊपर लदे बोझ के समान है . जैसे गधे पर चन्दन लदा है तो वह उसके बोझ को तो अनुभव करता है , किन्तु चन्दन से काया लाभ है और उससे कैसे सुख प्राप्त किया जाता है ? वह इस बात को नहीं जानता .*****

                                                 
                                        



तुलसी के गुण

तुलसी के गुण

                                             


  1. तुलसी की पत्तियों में कई ओषधियाँ पायी जाती हैं .

  2. तुलसी की सुगंध श्वास-सम्बन्धी कई बिमारियों से बचाती है .

  3. शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि .  

  4. ह्रदय-रोग तथा सर्दी - जुकाम में लाभ-दायक .


    पत्तियों को चाय में उपबालकर सर्दी-जुकाम और बुखार में लाभ .

  5. तुलसी की पत्तियों के चबाने  से जुकाम , सर्दी और बुखार में लाभ . साथ में नीम की पत्तियों का सेवन भी दांत के रोग से रक्षा करता है .

  6. खून में कोलस्ट्राल के स्तर में कमी .

  7. पत्तियों में तनाव रोधी गुण भी .

  8. मूंह के छाले और दुर्गन्ध की समस्या भी दूर .

  9. दाद , खाज - खुजली में और त्वचा सम्बन्धी अन्य रोगों में तुलसी का अर्क लगाने से लाभ .

  10. तुलसी के काढ़े से सिर-दर्द में अत्यधि लाभ .*****

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देव शयनी एकादशी

देव शयनी एकादशी

                                          

आषाढ़ी एकादशी , पद्मा एकादशी और हरिशयन एकादशी आदि ये सारे नाम एक ही एकादशी के हैं . शास्त्रों के अनुसार इस दिन भगवान विष्णु विश्राम के लिए क्षीर सागर को प्रस्थान करते हैं . क्योंकि चार मास वे क्षीर सागर में रहते हैं ,. चार महीने के विश्राम के बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को विष्णु वैकुण्ठ लौटते हैं . इस दिन को प्रबोधिनी या देवोत्थान एकादशी भी कहते हैं . वास्तव में यह काल वर्षा - ऋतु का काल होता है . इसमें आवागमन सरल नहीं होता था . अत: इसे धार्मिक आस्था से सम्बद्ध कर दिया गया है .

 आज के युग में चातुर्मास का सामाजिक दृष्टिकोण अधिक महत्त्वपूर्ण है . क्योंकि ये चार महीने खेती - किसानी के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं . इसलिए दूरदर्शी आचार्यों ने कृषि - कर्म को महत्त्व देने के लिए विशेष आयोजनों , शुभ - कार्यों व यात्रा आदि को वर्जित करने का प्रावधान रखा।   

इसके अतिरिक्त चातुर्मास वर्षा - काल होता है . चिकित्सा-विज्ञान भी मानता है कि ऐसे समय में जीवाणु व रोगाणु अधिक सक्रिय रहते हैं . इधर - उधर की यात्रा से अथवा आयोजन में अनेक लोगों के एकत्रित होने से संक्रमण के फैलने का अंदेशा रहता है , इसलिए भी यह प्रावधान समीचीन प्रतीत होता है .
आयुर्वेद में इन चार माह के दौरान पत्तेदार शाक- सब्जी खाना वर्जित बताया गया है . इस समय मनुष्य का पाचन - तन्त्र कमजोर हो जाता है . ऐसे में एक दिन का व्रत रखकर शरीर को निरोगी रखने का प्रयास किया जाता है . इससे कर्म के संकल्प को एक नई ऊर्जा प्राप्त होती है .*****  

सोमवार, 13 जून 2011

गंगा-अवतरण

 ' गंगा दशहरा '


ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की दशमी को ' गंगा दशहरा ' मनाया जाता है । कहा जाता है कि इसी दिन ' गंगा का अवतरण ' हुवा था । गंगा इसी दिन स्वर्ग से धरती पर आई थी । ऋग्वेद में जल को माता के नाम से अभिहित किया गया है ।  

 एक पौराणिक आख्यान के अनुसार सगर के यज्ञ के घोड़े को यज्ञ में विघ्न डालने के लिए इंद्र ने चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बाँध लिया । उन्हें खोजते हुवे सगर के पुत्र जब मुनि के आश्रम में पहुंचे तो मुनि ने शाप से भस्म कर डाला । गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए सगर की कई पीढ़ियाँ तप करती रहीं । भगीरथ अपने तप से गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर उतारने में सफल हुवे । वही तपोस्थली गंगोत्री नामक तीर्थ है ।

शांतनु से गंगा को आठ पुत्र प्राप्त हुवे । सात पुत्र तो गंगा में  
डूबा दिए , किन्तु आठवां पुत्र शांतनु ने डुबाने नहीं दिया और यही पुत्र भीष्म हुवा । जब परशुराम और भीष्म हुवा तो गंगा ने भीष्म की रक्षा की । भीष्म के वध के लिए जब अम्बा तप कर रही थी , तो एक बार वह गंगा में स्नान करने के लिए आई । इस पर गंगा ने उसे नदी होने का शाप दे दिया । गंगा के प्रसिद्ध पर्याय हैं _ भागीरथी , जाह्नवी , मन्दाकिनी , सुरसरि , देवापगा , भीष्मसू , त्रिपथगा , अलकनंदा आदि ।

यह उत्तरभारत की अति पवित्र नदी है । जो हिमालय में गंगोत्री से निकल कर बंगाल की खाड़ी में गिर जाती है । हरिद्वार , प्रयाग और वाराणसी इसी के किनारे बसे हुवे हैं । हिन्दुओं का विश्वास है कि इसमें स्नान करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है ।*****