प्राणायाम के अभ्यास से अंधकार का आवरण क्षीण होने लगता है . जिन्हें भी योग-विद्या के प्रयोग एवं परिणाम का अनुभव है ; उन्हें यह पता है कि सात्विकता ही प्रकाश का परिचय एवं पर्याय है . इसके विपरीत तमस अन्ध्यारे का द्योतक है . रजस की अवस्था मध्यवर्ती है . इसमें अँधियारा घना तो नहीं होता , परन्तु प्रकाश भी नहीं होता . चित्त-चिन्तन एवं चेतना में निषेधात्मक कर्मों , भावों एवं विचारों की जितनी गहरी परतें चढ़ती जाती हैं तो सात्विकता क्षीण होती जाती है और अन्ध्यारे का आवरण घना व गहरा होता जाता है . प्राणायाम की प्रक्रिया से यह तमस का आवरण देह , प्राण एवं मन से क्रमिक रूप से हटता और मिटता चला जाता है .
इसी क्रम से इसके परिणाम भी जीवन में उभरते हैं . जिन्होंने सही एवं सम्यक विधि से प्राणायाम शुरू किया , उन्हें अपने जीवन में सबसे पहले स्वास्थ्य का वरदान प्राप्त होता है . उनकी देह अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ एवं क्रन्तियुक्त हो जाती है . शरीर के सभी अंग अवयव सही व सुचारू रूप से कार्य करने लगते हैं . प्राणायाम यदि सही एवं सम्यक ढ़ंग से नियमित व दीर्घ काल तक किया जाता रहे तो न केवल परिस्थितिजन्य रोग ठीक होते हैं , बल्कि जटिल -कठिन प्रारब्द्ध-जन्य रोग भी ठीक होने लगते हैं . दूसरे क्रम में इसके परिणाम प्राण के तल पर साहस , शौर्य आदि के रूप में उभरने लगते हैं . यह प्रयास यदि गहरा होता जाये तो स्वत: ही व्यक्ति व व्यक्तित्व में सद्भाव एवं सद्विचारों का विकास होता होता है , जो क्रमिक रूप से सद्ज्ञान एवं सद्विवेक रूप में प्रकट होता है . प्राणायाम की दीर्घता व सूक्ष्मता प्राप्त होने पर एक अवस्था ऐसी भी आती है , जब तमस व रजस के आवरण क्षीण हो जाते हैं और सात्विकता का प्रकाश और उसकी प्रभा पूरे व्यक्तित्व मे छा जाती है .
इसके प्रभाव की चर्चा महर्षि ने अपने अगले सूत्र में की है _ ' धारणासु च योग्यता मनस: ' अर्थात धारणाओं में मन की योग्यता भी हो जाती है . महर्षि का यह सूत्र अपूर्व एवं अद्भुत होने के साथ कई सूक्ष्म सत्य स्वयं में संजोये हुवे है . धारण कुछ भी करना हो इसके लिए आवश्यक है पात्र का होना . पात्र न हो तो प्राप्ति से भी वंचित रहना पड़ता है . प्रकृति एवं परिस्थितियाँ देना चाहें और अवसर भी सहज सुलभ हो जाएँ ; तो भी पात्र एवं पात्रता के बिना व्यक्ति को वंचित ही रहना पड़ता है . इस दृष्टि से विचार किया जाये तो प्राणायाम के प्रयोग से योगसाधक सुपात्र बनता है , उसकी पात्रता विकसित होती है . यही पात्रता उसे धारणा के योग्य बनाती है .
युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव अपनी आध्यात्मिक वार्ताओं में कहा करते थे की प्रकृति पात्र को कभी वंचित नहीं करती है है और कुपात्र को कभी कुछ मिलता नहीं है . यदि संयोगवशात कभी कुछ मिल भी जाये तो मिला हुवा टिकता नहीं है . उनका कहना था की कुछ लोग धारणा को एकाग्रता मान लेते हैं , परन्तु ऐसा है नहीं . एकाग्र होने पर तो सिर्फ धारणा की झलक मिलती है . धारणा तो धारण करने की क्षमता है _ कुछ वैसे ही , जैसे कि विवाहित स्त्रियाँ गर्भ धारण करती हैं . उनके द्वारा यह गर्भ धारण करना उनके गर्भाशय के शुद्ध और स्वस्थ होने की क्षमता पर निर्भर करता है . बस , इसी तरह योगसाधक के चित्त को भी शुद्ध एवं स्वस्थ होना चाहिए .
चित्त , चिन्तन एवं चेतना में जब रजोगुण छाया रहता है तो वासनाएं , कामनाएं एवं लालसाएं पूरे अस्तित्व में हावी रहती हैं . संशय , संदेह एवं भ्रम का जाल भी रहरहकर कसता व जकड़ता रहता है . ऐसी अवस्था में चित्त धारण तो करता है , पर निषेधात्मक एवं नकारात्मक सत्यों को प्रकाशित करने वाली बात उसे समझ में नहीं आती . सद्विवेक एवं सद्ज्ञान उसे आडम्बर लगते हैं . सारा समय स्वार्थ और अहंकार पूरा करने के लिए सोचते व जुगत लगते बीतता है . इस अवस्था में जाग्रति तो है , पर दिशा नहीं है .
लेकिन जब प्राणायाम के प्रभाव से रजस व तमस की परतें टूटती हैं , तब स्थिति , अवस्था व दशा में चमत्कारी परिवर्तन होते हैं . जड़ता टूटती है , साथ ही वासनाएं , कामनाएं व लालसाएं भी तिरोहित हो जाती हैं . सद्ज्ञान , सद्विवेक स्वत: ही जागृत हो उठते हैं . उच्चस्तरीय व आध्यात्मिक जीवन के प्रति जिज्ञासा जगती है . योग साधक की अन्तश्चेतना परिपूर्ण रूप से प्रकाशित हो उठती है . तब मन धारणा की योग्यता पा लेता है . ऐसी अवस्था में मन माँ की भांति हो जाता है . माँ बच्चे को नौ महीने अपने भीतर धारण करती है . वह उसे बीज की भांति सम्भालती है . सम्भवत: इसीलिए शास्त्रों में स्त्री को धरती भी कहा गया है .
क्योंकि माँ बच्चे को धारण करती है , बच्चे के बीज को _ ठीक उसुई तरह , जैसे कि धरती वृक्ष के बीज को महीनों तक धारण करती है . जब बीज धरती में निश्चिन्त हो जाता है , तभी उसकी खोल टूटती है और वह अंकुरित होता है . कुछ इसी तरह सात्विक चित्त भी प्रकाश व पवित्रता को धारण करने के योग्य हो जाता है . वह उच्चस्तरीय धारणा के बीज को भी सहेजता है . तप , ज्ञान एवं भक्ति से उसे सिंचित करता है . इसी के साथ धारणा का भी परिपाक होता रहता है . तप , ज्ञान व भक्ति की साधना गहराने के साथ धारणा परिपक्व होती जाती है . परिशोधित प्राण उसे पुष्ट करता रहता है .__ अखंड-ज्योति *****
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