रविवार, 14 अगस्त 2011

उपासना

उपासना

                                         

हम प्रभु की उपासना क्यों करना चाहते हैं ? इसका उत्तर सरल और स्पष्ट है क्योंकि प्रभु हम सबको प्यार करता है . वह जीवन भर हमारे साथ रहा है और सदा हमारे साथ रहेगा . सम उसकी समानता में एक बच्चे के समान हैं और वह हमारा पिता है .

वह हमारा पिता , बन्धु , सखा , माता , गुरु आदि है . उसका आभार हमें व्यक्त ही करना चाहिए . उसका धन्यवाद करना अपेक्षित है . वह हमारे अनंत मार्ग में सदा सहायक रहा है . इसलिए नहीं कि वह उसको धन्यवाद की अपेक्षा है , इसलिए नहीं कि वह क्या लालसा करता है कि सब प्राणी उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करें . इससे इसकी महत्ता में कोई वृद्धि नहीं होती -- परन्तु इससे हममें विनम्रता का विकास होगा , जिसकी अपने जीवन में उत्पन्न करने की महती आवश्यकता है . विनम्रता एक विशिष्ट गुण है , जो हममें होना चाहिए . वास्तव में हमें इस पर कुछ भी व्यय नहीं करना पड़ता . जैसे आप किसी से मिलते हैं तो प्यार भरे शब्दों में कुछ न कुछ सम्बोधन करते ही हैं .

वह हमारे निरंतर साथ रहा है . तो क्या बदले में हम उसको भूल जाएँ ? कम से कम वह तो हमें नहीं भूलता . हम उससे प्रेम के सूत्र में बंधे हैं . हमें ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए की असत से सत की ओर , अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर हम बढ़ते जाएँ . और यही सच्ची प्रार्थना है . इसी उपासना का सदा महत्त्व होता है. उपासना द्वारा उस प्रभु की स्तुति इसलिए करते हैं ताकि उसके गुणों का हममें समावेश हो जाये . हमारी उपासना सर्व मान्य होनी चाहियें ; वे स्वार्थ की भावना से रहित सर्वार्थ की भावना से आपूरित हों ......... तभी वह उपासना कल्याणमयी और हितकारी बन सकती है .   ..........

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