गुरुवार, 22 सितंबर 2011

जहाँ भिक्षा मिलना भी कठिन हो जाये

जहाँ भिक्षा मिलना भी कठिन हो जाये 

                                        

महर्षि शांखल्यायन तथा महर्षि आत्रेय सपत्नीक परिव्रज्या कर रहे थे . राजा वृषादर्भि के राज्य में पहुंचे . दुर्भिक्ष के कारण उन्होंने कहीं भी भिक्षा नहीं मांगी . जहाँ अन्न का अभाव हो , वहां भिक्षा न मांगकर कंद-मूल से ही काम चलाने की ऋषि-गणों की नीति रही है . पर कंद-मूल भी नहीं थे . राज्य में ऋषिगण पधारे हैं , यह जानकारी मिलते ही राजा पर्याप्त मात्रा में अन्न , फल , स्वर्ण- मुद्राएँ एवं रत्न-आभूषण लेकर आया .

ऋषियों ने कहा _  ' हम अगली प्रात: तक के लिए धान्य अपने पास नहीं रखते और निरंतर पर्यटन करते रहते हैं . इस रत्न-राशि का क्या करेंगे ?  राजा ने कहा _  " आप जहाँ कहें , वहां इस भेंट को पहुंचा  दूंगा , फिर आपको भिक्षाटन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी . आप स्वीकार कर लें . '

ऋषि गण बोले _ ' तुम्हारा दान और विनय सराहनीय है , किन्तु हम भी व्रत से बंधे हैं . हाँ , एक बात हो सकती है कि दान के साथ एक दक्षिणा दो कि इस सामग्री के बदले में जितना धन- धान्य तुम्हारे भंडार में हो ; उसे पूरे राज्य में बाँट दो , ताकि दुर्भिक्ष पीड़ितों का राहत मिले . हम तापस हैं . सेवा ही हमारा धर्म है . तुम शासक होने के नाते हमारा दायित्व पूरा करो . '

अस्तु , धर्मसत्ता और राजसत्ता के इस मिलन- संयोग पर इन्द्रदेव भी प्रसन्न हुवे और वरुण दुर्भिक्ष के निवारण हेतु चल पड़े .

लगन पैदा कर फिर देख क्या मिलता है ?

लगन पैदा कर फिर देख क्या मिलता है ?


एक जिज्ञासु अपने गुरु के पास गया . ईश्वर - प्राप्ति की उसे बहुत लगन थी . गुरु मुस्कुरा दिया , कुछ बोले नहीं . फिर दो दिन छोड़कर एवं बाद में हर दिन वह आने लगा . गुरूजी मुस्कुरा कर टाल देते . एक दिन धूप तेज थी . गर्मी के मारे व्यग्रता थी . उसी समय वह युवक आया और फिर वाही प्रश्न पूछा . गुरूजी पहली बार बोले _ ' चलो नदी में स्नान करने चलते हैं . '

दोनों नदी में कूद पड़े . अभी युवक ने गोता लगाया ही था कि गुरूजी ने उसे दबोच लिया . वे अच्छी मजबूत कद-काठी के थे . बड़ी देर तक वे उसे दबाये रहे . काफी देर छटपटाने के बाद छोड़ा तो वह पानी के ऊपर निकला और शिकायत करने लगा कि उन्होंने ऐसा व्यवहार क्यों किया ? गुरूजी ने पूछा _ ' जब तक तू पानी में डूबा था , तुझे सबसे प्रिय क्या लग रहा था ? ' युवक ने गुस्से में उत्तर दिया _ ' महाराज साँस लेने के लिए हवा . ' गुरूजी _ ' उस समय तू जितना व्यग्र था , उतना क्या अभी भी है ? यदि है तो ईश्वर प्राप्त कर लेगा . यदि नहीं तो जा . अपनी ओर से ईश्वर - प्राप्ति के लिए वही लगन पैदा कर . तभी ईश्वर के दर्शन हो पाएंगे . नहीं तो रोज आकर इसी तरह मुझे हैरान करता रहेगा . ' युवक चल पड़ा स्वयं को बनाने के लिए और अपनी पात्रता को विकसित करने के लिए .

बुधवार, 21 सितंबर 2011

तीन प्रश्न और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्तमान

तीन प्रश्न और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्तमान

                                     
                               

प्रसिद्ध साहित्यकार टालस्टाय ने ' तीन प्रश्न ' नामक एक महत्त्वपूर्ण कहानी लिखी है . उसका सार निम्न प्रकार है . किसी समय एक राजा था और उसके मन में तीन प्रश्न उठे __ 1 _ सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य क्या है   2 _  परामर्श के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति कौन है ? 3 _ निश्चित कार्य को आरम्भ करने का सबसे महत्त्वपूर्ण समय कौन-सा है ?

राजा ने सभासदों की बैठक बुलाई , पर कोई समाधान न मिला . मंत्री ने परामर्श दिया कि वन में एक चिंतक ऋषि स्तर के महापुरुष एकांत में रहते हैं . उनका सान्निध्य पाना चाहिए . राजा चल पड़ा . उसने सुरक्षा के लिए आये दल को छोड़कर आगे पैदल जाना पसंद किया . देखा कि वह चिन्तक तो खेत में कुदाल चला रहा है . थोड़ी देर देखता रहा , फिर उसकी निगाह पड़ने पर राजा ने अपने तीन प्रश्न बताये . चिंतक ने राजा को कुदाल दे दी और खेत में तब तक चलाने को कहा , जब तक वह मना न करे .

संध्या हो गयी . इसी बीच एक व्यक्ति दौड़ता हुवा आया एवं राजा के पास भूमि पर गिर पड़ा . उसके कपड़े रक्त से लथपथ थे . दोनों ने उसकी मरहम पट्टी की . अगले दिन सबेरे देखा _ वह घायल व्यक्ति राजा से माफ़ी माग रहा था . राजा को आश्चर्य हुवा . उसने बताया कि वह राजा को अकेला पाकर मारने आया था . उसके भाई को राजा ने फांसी की सजा दी थी . गुप्तचरों ने उसे देखकर हमला कर दिया . राजा ने उसकी प्राणरक्षा की ; अत: वह उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने लगा . यह सब देखकर चिन्तक मुस्कुरा रहे थे .

उन्होंने कहा कि _ ' क्या अभी भी आपको प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला ? पहली बात _  सबसे महत्त्व का काम वह , जो सामने है . मुझे देखकर मेरे श्रम में सहभागी बनना . महत्त्वपूर्ण व्यक्ति वह , जो पास में है तथा वह घायल व्यक्ति जिसको मदद की आवश्यकता थी . एवं सबसे महत्त्व का समय अभी का है _ वर्तमान का है , जिसके सुनियोजन से आपका शत्रु भी मित्र बन गया .


अस्तु , सार यह है कि सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्तमान है . जिसका सदुपयोग हो जाये एवं पूर्ण मनोयोग से लगा जाये तो सर्वांगीण प्रगति सम्भव है .



सोमवार, 19 सितंबर 2011

नियमित उपासना

नियमित उपासना
                                               



ऋषि विश्वामित्र तब ब्रह्मर्षि नहीं बने थे . तपस्या कर रहे थे एवं कठोर साधना में रत थे . श्रेष्ठ तपस्वी -योगी के भी कुछ संस्कार ऐसे रह जाते हैं जो कहीं-न - कहीं अवरोध बन जाते हैं . इंद्र ने मेनका को भेजा . ऋषि की तपस्थली के चारों ओर वसंत छा गया . वे मेनका के सौन्दर्य के समक्ष पराजित हो गये . समय बीता और एक बेटी ने जन्म लिया .

एक सबेरे थोडा जल्दी उठ गये थे . पत्नी मेनका भी साथ उठी . अचानक सूर्योदय देखा . बोले __ ' अरे ! ब्राह्म मुहूर्त्त आ गया और हमने अभी संध्या भी नहीं की . यह तो हमारा नियम था . '  मेनका बोली _  ' नाथ ! आपकी कितनी संध्याएँ निकल गयीं , आपको पता है ? तीन वर्ष बीत गये . दो वर्ष की तो बेटी हो गयी है . '

बोध-प्रबोध हुवा . तुरंत सब छोड़कर पुन: सारा क्रम प्रारम्भ किया . जीवात्मा को होश ही नहीं रहता . कोई - न - कोई संस्कार , भले ही वह एक रह गया हो , अवरोध बन ही जाता है . चित्त-शुद्धि , श्रद्धा के सम्बल एवं नियमित उपासना से उस अवरोध को हटाया भी जा सकता है .

मृत्यु -भय

मृत्यु -भय
                                   
                          

अंतिम दिन की कथा शेष थी . शुकदेव परीक्षित को तक्षक द्वारा काटे जाने से पूर्व श्रीमदभागवत कथा सुना रहे थे . राजा का मृत्युभय दूर ही नहीं हो पा  रहा था . वीतराग शुकदेव ने एक कथा सुनाई _ ' राजन ! एक राजा जंगल में शिकार खेलने गया . वह रास्ता भूल गया और कुछ नहीं मिला तो एक बीमार बहेलिए की झोंपड़ी में ही विश्राम करना करना पड़ा . बाहर हिंसक जन्तु थे . बहेलिया चल-फिर नहीं सकता था , अत, मल-मूत्र वहीँ झोंपड़ी में ही विसर्जित कर देता था . खाने के लिए जानवरों का मांस भी वहीँ लटका रखा था . बड़ी दुर्गन्ध थी , पर कोई विकल्प नहीं था . राजा वहीँ रुक गया .

बहेलिए ने राजा से कहा _  ' आपको दुर्गन्ध भा जाएगी तो आप भी जाना पसंद नहीं करेंगे , इसलिए एक दिन तक ही यहाँ रह सकते हो और इसके बाद यह जगह खाली करनी पड़ेगी . '  राजा ने वचन दे दिया . एक रात में ही राजा पर वह जादू हुवा कि वह राज-काज भूलकर झोंपड़ी छोड़ने का मन ही नहीं बना पाया . प्रात: काल दोनों में खूब विवाद हुवा . बहेलिया झोंपड़ी खाली कराना चाहता था और राजा खाली नहीं कर रहा था .

यह अधूरी कथा सुनाकर शुकदेव बोले _  ' परीक्षित ! बताओ , क्या यह झन्झट उचित था ? ' परीक्षित बोले _ ' ऐसे मूर्ख राजा पर तो मुझे भी क्रोध आता है . '  शुकदेव बोले _  ' परीक्षित ! वह और कोई नहीं , तुम स्वयं हो . इस मल-मूत्र की कोठरी -देह में तुम्हारी आत्मा को जितनी जरूरत थी , वह अवधि पूरी हो गयी है . अब आपको उस लोक में जाना है , जहाँ से आप आये थे . मरने के लिए इतना संताप क्यों ? क्या यह उचित है ? '  परीक्षित संतश्रेष्ठ का संकेत समझ गये . मृत्यु भय भुलाकर पूरे मन से अंतिम दिन की कथा का श्रवण किया और यही सही जीवन-नीति है .&&&&&&&&&&&&&&&

ब्रह्मदर्शन होते ही शांत

ब्रह्मदर्शन होते ही शांत

                                                    

ब्रह्मदर्शन होते ही मनुष्य चुप हो जाता है . जब तक दर्शन न हो तब तक विचार होता रहता है . घी जब तक पक न जाये तभी तक आवाज करता है . पके घी से शब्द नहीं निकलता . उसी तरह समाधिस्थ पुरुष जब लोक-शिक्षण के लिए नीचे उतरता है तो तभी बोलता है .

जब तक मधुमक्खी फूल पर नहीं बैठती तभी तक भनभनाती है . फूल पर बैठकर मधु पीना शुरू करते ही चुप हो जाती है .

तालाब में घड़ा भरते समय भक-भक आवाज होती है . घड़ा भर जाने के बाद फिर आवाज नहीं होती . और यही स्थिति ज्ञानी की होती है .    ___     श्री रामकृष्ण परमहंस विचार

मेहमान की सेवा ही प्रभु सेवा

मेहमान की सेवा ही प्रभु सेवा 
                                           

अनमीषी को अपने ज्ञान के कारण ' अक्षर महर्षि ' कहा जाता था . वे निरंतर आश्रम में ब्रह्मचारियों का शिक्षण करते तथा लोक-शिक्षण के लिए समर्पित जीवनव्रती स्नातक समाज को देते . उनके आश्रम की आर्थिक व्यवस्था नागरिक उठा लेते थे . एक दिन एक संत आश्रम में पधारे . उन्होंने कहा _ ' आप अन्नदान दें , जिससे सदावर्त चलाया जा सके . '

ऋषि बोले _ ' मेरे पास तो ज्ञान-धन है , उसी को लुटाता रहता हूँ . ' संत बोले _  ' ऋषिवर ! अन्न भी तो आपके द्वारा उपार्जित धन है . उसका एक अंश लोक-मंगल के लिए लगना चाहिए . मात्र अपने लिए खाने वाले को तो पापी कहते हैं . ' ऋषि को ज्ञान मिला . उन्होंने कहा कि यथाशक्ति इसका निर्वाह करूंगा . और अपनी जीवन सहचरी से वार्ता की .

अब दम्पति नित्य किसी क्षुधापीड़ित को पहले भोजन कराते , फिर अन्न-जल ग्रहण करते थे . एक दिन ऐसा योग आया कि कोई भी आश्रम के द्वार पर नहीं आया . प्रतीक्षा में पूरा दिन निकल गया . दोनों ही सत्पात्र की खोज में निकल गये .

एक पेड़ के नीचे एक वृद्ध कुष्ठ रोगी पीड़ा से कराहता मिला . उन्होंने उसे सहारा देकर आश्रम ले चलने की बात की और सेवा का अवसर माँगा . वृद्ध बोला _  ' मैं चांडाल हूँ . आश्रम कैसे जाऊं ? आप सामग्री यहीं ले आइये और यहीं ले लूंगा .  '  ऋषि बोले _  ' भगवन ! आप अतिथि हैं . हम इन मिथ्या मान्यताओं को नहीं मानते . आप-हम एक ही परमात्मा के अंश हैं _  चलिए . '  प्राथमिक सहायता के बाद स्नान करवाया और उसके बाद महर्षि दम्पति ने भोजन करवाया . रात्रि को स्वप्न में परमात्मा ने दर्शन दिए और कहा _  ' यही सच्चा धर्म है अनामिषी ! '                                                            


पनामा _नहर

कुदरत का एक अद्भुत नजारा __ पनामा नहर

                                           
        

पनामा नहर कुदरत का एक अद्भुत नजारा हमें दिखाती है . यह नहर 1904 में बनना प्रारम्भ हुयी और 1914 में पूरी हुयी . यह अटलांटिक महासागर से प्रशांत महासागर को जोड़ती है एवं 77 किलोमीटर ( 48 मील ) लम्बी है . इसमें से जहाज गुजरते हैं . एक तरफ संयुक्त राज्य अमेरिका है तो दूसरी ओर पनामा देश . यहाँ एक सेंचुरी क्लब है , जहाँ बैठकर आप एक महासागर में सूर्यास्त एवं थोड़ी देर बाद ही दूसरे महासागर में सूर्योदय एक साथ देख सकते हैं .

यह नहर 5 मील चौड़ी है . यहाँ सूर्य प्रशांत महासागर में उदय होता है और अटलांटिक महासागर में अस्त होता है . इस अद्भुत दृश्य का कारण है कैनाल की भौगोलिक स्थिति . उत्तर-पश्चिम से यह दक्षिण-पूर्व की ओर जाती है . प्रशांत महासागर में जब यह प्रवेश करती है तो वह और भी पूर्व की ओर होता है .

अगर आप सेंचुरी क्लब पनामा में शाम को बैठें तो अटलांटिक महासागर में अस्त होता सूरज देखेंगे , परन्तु जैसे ही उधर अँधेरा शुरू होगा , आप अचानक पूर्व की ओर प्रशांत महासागर में सूर्य की लालिमा देखेंगे और गेंद की तरह ऊपर आता सूरज . प्रकृति का यह नजारा बस ! यहीं देखने को मिलता है . यह बहुत ही विलक्षण एवं अद्भुत दृश्य होता है .


रविवार, 18 सितंबर 2011

कर्त्तव्यों का निष्ठा पूर्वक पालन

कर्त्तव्यों का निष्ठा पूर्वक पालन

                                                    

पति का अकाल निधन होने पर साध्वी रोहिणी ने कठोर परिश्रम करके अपने एक मात्र  पुत्र के प्रखर प्रशिक्षण की व्यवस्था बनाई . उसका पुत्र देवशर्मा अपने समय के श्रेष्ठ विद्वानों में गिना जाने लगा . तपश्चर्या भी वह कर ही रहा था . उसे अपनी मुक्ति , अपना स्वर्ग अधिक प्रिय लगा तो वह माँ और छोटी बहन को बिलखता छोड़कर तीर्थाटन पर निकल गया और नंदीग्राम के एक मठ में और ऊंची साधना करने लगा . एक दिन नदी तट पर आसन डालकर बैठा था . गीला चीवर सूख रहा था , तो देखा कि एक बगुला व एक कौवा चीवर को चोंच में दबाकर उड़ने ही जा रहे हैं . उसने क्रोधपूर्ण दृष्टि से पक्षियों की ओर देखा . साधना-जन्य देह से ज्वाला निकली और दोनों पक्षी जलकर राख हो गये . देवशर्मा को लगा कि समस्त भूमंडल पर उन जैसा दूसरा सिद्ध कोई नहीं .

रास्ते में नगर में भिक्षा लेते हुवे मठ जाने की बात सोची तो गृहस्थ के द्वार पर आवाज लगाई . जवाब से मिला ऐसा लगा कि गृहस्वामिनी अंदर है . फी दो तीन - बार पुकार लगाई . धैर्य था नहीं . अंदर से बराबर आवाज आती _ ' कृपया प्रतीक्षा करें . अभी आती हूँ . साधना कर लूँ . तब भिक्षा दूंगी . ' देवशर्मा बोले _ ' परिहास करती है . जानती है , इसका परिणाम क्या होगा ? ' अंदर से आवाज आई _ ' मैं जानती हूँ आप शाप देना चाहते हैं , पर मैं कौवा या बगुला नहीं हूँ . जो तुम्हारी कोप-दृष्टि से जल जाऊं ? जिसने तुम्हें जीवन-भर पाला , बड़ा किया , उन्हें त्यागकर मुक्ति चाहने वाले साधु तुम मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते . '

देवशर्मा की सिद्धि का अहं चूर -चूर हो गया . यह तो सब जानती है . भिक्षा देने बाहर आई गृहस्वामिनी से पूछा _ ' कौन - सी साधना करती हैं ? आप मेरे बारे में सब कैसे जान गयी ? ' वह बोली _ ' मैं कर्त्तव्य की साधना करती हूँ . पति बच्चे , परिवार , समाज , देश के प्रति कर्त्तव्यों का निष्ठा पूर्वक पालन करती हूँ . उसी की सिद्धि है यह . ' तभी देवशर्मा वापिस लौट पड़े अपनी माँ के पास कर्त्तव्यों को पूरा करने हेतु .                       

बुधवार, 7 सितंबर 2011

वन्दे मातरम् !

वन्दे मातरम !                                                        

सुजलां, सुफलां , मलयज- शीतलाम

शस्यश्यामलाम , मातरम ! वन्दे मातरम !

शुभ्रज्योत्स्नाम , पुलकितयामिनीम , फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम

सुहासिनीम सुमधुर भाषिणीम , सुखदाम , वरदाम मातरम !

वन्दे मातरम् !