महर्षि शांखल्यायन तथा महर्षि आत्रेय सपत्नीक परिव्रज्या कर रहे थे . राजा वृषादर्भि के राज्य में पहुंचे . दुर्भिक्ष के कारण उन्होंने कहीं भी भिक्षा नहीं मांगी . जहाँ अन्न का अभाव हो , वहां भिक्षा न मांगकर कंद-मूल से ही काम चलाने की ऋषि-गणों की नीति रही है . पर कंद-मूल भी नहीं थे . राज्य में ऋषिगण पधारे हैं , यह जानकारी मिलते ही राजा पर्याप्त मात्रा में अन्न , फल , स्वर्ण- मुद्राएँ एवं रत्न-आभूषण लेकर आया .
ऋषियों ने कहा _ ' हम अगली प्रात: तक के लिए धान्य अपने पास नहीं रखते और निरंतर पर्यटन करते रहते हैं . इस रत्न-राशि का क्या करेंगे ? राजा ने कहा _ " आप जहाँ कहें , वहां इस भेंट को पहुंचा दूंगा , फिर आपको भिक्षाटन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी . आप स्वीकार कर लें . '
ऋषि गण बोले _ ' तुम्हारा दान और विनय सराहनीय है , किन्तु हम भी व्रत से बंधे हैं . हाँ , एक बात हो सकती है कि दान के साथ एक दक्षिणा दो कि इस सामग्री के बदले में जितना धन- धान्य तुम्हारे भंडार में हो ; उसे पूरे राज्य में बाँट दो , ताकि दुर्भिक्ष पीड़ितों का राहत मिले . हम तापस हैं . सेवा ही हमारा धर्म है . तुम शासक होने के नाते हमारा दायित्व पूरा करो . '
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