अंतिम दिन की कथा शेष थी . शुकदेव परीक्षित को तक्षक द्वारा काटे जाने से पूर्व श्रीमदभागवत कथा सुना रहे थे . राजा का मृत्युभय दूर ही नहीं हो पा रहा था . वीतराग शुकदेव ने एक कथा सुनाई _ ' राजन ! एक राजा जंगल में शिकार खेलने गया . वह रास्ता भूल गया और कुछ नहीं मिला तो एक बीमार बहेलिए की झोंपड़ी में ही विश्राम करना करना पड़ा . बाहर हिंसक जन्तु थे . बहेलिया चल-फिर नहीं सकता था , अत, मल-मूत्र वहीँ झोंपड़ी में ही विसर्जित कर देता था . खाने के लिए जानवरों का मांस भी वहीँ लटका रखा था . बड़ी दुर्गन्ध थी , पर कोई विकल्प नहीं था . राजा वहीँ रुक गया .
बहेलिए ने राजा से कहा _ ' आपको दुर्गन्ध भा जाएगी तो आप भी जाना पसंद नहीं करेंगे , इसलिए एक दिन तक ही यहाँ रह सकते हो और इसके बाद यह जगह खाली करनी पड़ेगी . ' राजा ने वचन दे दिया . एक रात में ही राजा पर वह जादू हुवा कि वह राज-काज भूलकर झोंपड़ी छोड़ने का मन ही नहीं बना पाया . प्रात: काल दोनों में खूब विवाद हुवा . बहेलिया झोंपड़ी खाली कराना चाहता था और राजा खाली नहीं कर रहा था .
यह अधूरी कथा सुनाकर शुकदेव बोले _ ' परीक्षित ! बताओ , क्या यह झन्झट उचित था ? ' परीक्षित बोले _ ' ऐसे मूर्ख राजा पर तो मुझे भी क्रोध आता है . ' शुकदेव बोले _ ' परीक्षित ! वह और कोई नहीं , तुम स्वयं हो . इस मल-मूत्र की कोठरी -देह में तुम्हारी आत्मा को जितनी जरूरत थी , वह अवधि पूरी हो गयी है . अब आपको उस लोक में जाना है , जहाँ से आप आये थे . मरने के लिए इतना संताप क्यों ? क्या यह उचित है ? ' परीक्षित संतश्रेष्ठ का संकेत समझ गये . मृत्यु भय भुलाकर पूरे मन से अंतिम दिन की कथा का श्रवण किया और यही सही जीवन-नीति है .&&&&&&&&&&&&&&&
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