रविवार, 18 सितंबर 2011

कर्त्तव्यों का निष्ठा पूर्वक पालन

कर्त्तव्यों का निष्ठा पूर्वक पालन

                                                    

पति का अकाल निधन होने पर साध्वी रोहिणी ने कठोर परिश्रम करके अपने एक मात्र  पुत्र के प्रखर प्रशिक्षण की व्यवस्था बनाई . उसका पुत्र देवशर्मा अपने समय के श्रेष्ठ विद्वानों में गिना जाने लगा . तपश्चर्या भी वह कर ही रहा था . उसे अपनी मुक्ति , अपना स्वर्ग अधिक प्रिय लगा तो वह माँ और छोटी बहन को बिलखता छोड़कर तीर्थाटन पर निकल गया और नंदीग्राम के एक मठ में और ऊंची साधना करने लगा . एक दिन नदी तट पर आसन डालकर बैठा था . गीला चीवर सूख रहा था , तो देखा कि एक बगुला व एक कौवा चीवर को चोंच में दबाकर उड़ने ही जा रहे हैं . उसने क्रोधपूर्ण दृष्टि से पक्षियों की ओर देखा . साधना-जन्य देह से ज्वाला निकली और दोनों पक्षी जलकर राख हो गये . देवशर्मा को लगा कि समस्त भूमंडल पर उन जैसा दूसरा सिद्ध कोई नहीं .

रास्ते में नगर में भिक्षा लेते हुवे मठ जाने की बात सोची तो गृहस्थ के द्वार पर आवाज लगाई . जवाब से मिला ऐसा लगा कि गृहस्वामिनी अंदर है . फी दो तीन - बार पुकार लगाई . धैर्य था नहीं . अंदर से बराबर आवाज आती _ ' कृपया प्रतीक्षा करें . अभी आती हूँ . साधना कर लूँ . तब भिक्षा दूंगी . ' देवशर्मा बोले _ ' परिहास करती है . जानती है , इसका परिणाम क्या होगा ? ' अंदर से आवाज आई _ ' मैं जानती हूँ आप शाप देना चाहते हैं , पर मैं कौवा या बगुला नहीं हूँ . जो तुम्हारी कोप-दृष्टि से जल जाऊं ? जिसने तुम्हें जीवन-भर पाला , बड़ा किया , उन्हें त्यागकर मुक्ति चाहने वाले साधु तुम मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते . '

देवशर्मा की सिद्धि का अहं चूर -चूर हो गया . यह तो सब जानती है . भिक्षा देने बाहर आई गृहस्वामिनी से पूछा _ ' कौन - सी साधना करती हैं ? आप मेरे बारे में सब कैसे जान गयी ? ' वह बोली _ ' मैं कर्त्तव्य की साधना करती हूँ . पति बच्चे , परिवार , समाज , देश के प्रति कर्त्तव्यों का निष्ठा पूर्वक पालन करती हूँ . उसी की सिद्धि है यह . ' तभी देवशर्मा वापिस लौट पड़े अपनी माँ के पास कर्त्तव्यों को पूरा करने हेतु .                       

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