शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

स्वतन्त्रता का उभय मार्ग

स्वतन्त्रता का उभय मार्ग


                                                           

हमारा सारा सामर्थ्य उभय मार्गी है . अगर विपरीत हम न कर सके , तो सामर्थ्य है ही नहीं . जैसे किसी आदमी को हम कहें कि तुम ठीक करने के लिए हकदार हो . लेकिन गलत करने कि तुम्हें स्वतन्त्रता नहीं है . तुम्हें मात्र ठीक करने की स्वतन्त्रता है . तो समझो स्वतन्त्रता ख़तम हो गयी . स्वतन्त्रता का अर्थ ही यह है कि गलत करने की भी स्वतन्त्रता हो . तभी ठीक करने की स्वतन्त्रता का कोई अर्थ है .

चेतना स्वतंत्र है . स्वतन्त्रता चेतना का गुण है . स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि दोनों तरफ जाने का उपाय है . हम गलत भी कर सकते हैं . गलत करने की स्थिति में ही ठीक को खोजने की सुविधा है . हर आदमी सोचता है कि मैं सदा स्वस्थ रहूँ और कभी बीमार न पडूँ . लेकिन आपको पता नहीं कि आप जो चाह रहे हैं वह नासमझी से भरा पड़ा है . अगर आप कभी बीमार नहीं होंगे , तो आपको अपने स्वस्थ होने का पता ही नहीं लगेगा . अगर आप दुखी नहीं होंगे , तो सुखी होने का अहसास कैसे कर पाएंगे . अगर आपको केवल सत्य ही मिला होता और असत्य की तरफ जाने का कोई मार्ग ही नहीं होता , तो सत्य मूल्यहीन ही हो जाता . उसका मूल्य आपको कभी भी पता नहीं चलता . सत्य का मूल्य इसलिए है कि क्योंकि उसे हम उसे खो सकते हैं .

अगर परमात्मा ? ऐसा हो जिसे आप खो ही नहीं सकें , तो आप परमात्मा से ऊब जायेंगे . परमात्मा से ऊबने का कोई उपाय ही नहीं है . क्योंकि पल में आप उसे खो सकते हैं . और जिस दिन आप संसार से ऊब जाएँ , उसी क्षण आप परमात्मा में लीन हो सकते हैं . जो भी जीवन में है , वह अकारण नहीं है . दुःख है , संसार है , बंधन है और ये सब अकारण नहीं हैं . इनकी उपादेयता है . यह कि ये सब अपने से विपरीत की ओर इशारा करते हैं .

आपकी चेतना बंध सकती है , क्योंकि आपकी चेतना स्वतंत्र हो सकती है . ओर यह आपके हाथ में है . जब मैं कहता हूँ कि आपके हाथ में है तप आपको ऐसा लगता है कि मैं इसी समय स्वतंत्र क्यों नहीं हो जाता ? लेकिन समस्या यह है कि आप सोच तो स्वतंत्र होने के बारे में रहे हैं और सरे कार्य-कलाप बंधे रहने के लिए कर रहे हैं .

एक मित्र मेरे पास आये . बोले कि मन बहुत अशांत है . शांति का कोई उपाय बताएं . मैंने उनसे पूछा , पहले यह बताएं कि आपका मन अशांत क्यों है ? ऐसा न हो कि मैं आपकी शांति का उपाय बताऊँ और आप अशांति का उपाय कए चले जाएँ . तब तो कोई समाधान नहीं निकलेगा , बल्कि अशांति और बढ़ती चली जाएगी . ऐसी हालत हो जाएगी कि एक आदमी कार में एक्सीलेटर भी दबा रहा है और ब्रेक भी लगया जा रहा है . कार की तकनीक ऐसी है कि एक ही पैर से ब्रेक ब्रेक व एक्सीलेटर दबाया जाता है . आप चाहें , तो दोनों कार्य एक साथ भी कर सकते हैं कि ब्रेक व एक्सीलेटर दबा दें . बेशक ऐसी स्थिति में बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाएगी . इसलिए अशांति को रोकने वाला ब्रेक दबाना है , तो पहले अशांति बढ़ाने वाले एक्सीलेटर से पैर तो हटाना ही पड़ेगा . __ ओशो *****


                                                               




                                                                               

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

प्राणायाम और धारणा

प्राणायाम और धारणा

                                          

प्राणायाम के अभ्यास से अंधकार का आवरण क्षीण होने लगता है . जिन्हें भी योग-विद्या के प्रयोग एवं परिणाम का अनुभव है ; उन्हें यह पता है कि  सात्विकता ही प्रकाश  का परिचय एवं पर्याय है . इसके विपरीत तमस अन्ध्यारे का द्योतक है . रजस की अवस्था मध्यवर्ती है . इसमें अँधियारा घना तो नहीं होता , परन्तु प्रकाश भी नहीं होता . चित्त-चिन्तन एवं चेतना में निषेधात्मक कर्मों , भावों एवं विचारों की जितनी गहरी परतें चढ़ती जाती हैं तो सात्विकता क्षीण होती जाती है और अन्ध्यारे का आवरण घना व गहरा होता जाता है . प्राणायाम की प्रक्रिया से यह तमस का आवरण देह , प्राण एवं मन से क्रमिक रूप से हटता और मिटता चला जाता है . 

इसी क्रम से इसके परिणाम भी जीवन में उभरते हैं . जिन्होंने सही एवं सम्यक विधि से प्राणायाम शुरू किया , उन्हें अपने जीवन में सबसे पहले स्वास्थ्य का वरदान प्राप्त होता है . उनकी देह अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ एवं क्रन्तियुक्त हो जाती है . शरीर के सभी अंग अवयव सही व सुचारू रूप से कार्य करने लगते हैं . प्राणायाम यदि सही एवं सम्यक ढ़ंग से नियमित व दीर्घ काल तक किया जाता रहे तो न केवल परिस्थितिजन्य रोग ठीक होते हैं , बल्कि जटिल -कठिन प्रारब्द्ध-जन्य रोग भी ठीक होने लगते हैं . दूसरे क्रम में इसके परिणाम प्राण के तल पर साहस , शौर्य आदि के रूप में उभरने लगते हैं . यह प्रयास यदि गहरा होता जाये तो स्वत: ही व्यक्ति व व्यक्तित्व में सद्भाव एवं सद्विचारों का विकास होता होता है , जो क्रमिक रूप से सद्ज्ञान एवं सद्विवेक रूप में प्रकट होता है . प्राणायाम की दीर्घता व सूक्ष्मता प्राप्त होने पर एक अवस्था ऐसी भी आती है , जब तमस व रजस के आवरण क्षीण हो जाते हैं और सात्विकता का प्रकाश और उसकी प्रभा पूरे व्यक्तित्व मे छा जाती है .

इसके प्रभाव की चर्चा महर्षि ने अपने अगले सूत्र में की है _ ' धारणासु च योग्यता मनस: ' अर्थात धारणाओं में मन की योग्यता भी हो जाती है . महर्षि का यह सूत्र अपूर्व एवं अद्भुत होने के साथ कई सूक्ष्म सत्य स्वयं में संजोये हुवे है . धारण कुछ भी करना हो इसके लिए आवश्यक है पात्र का होना . पात्र न हो तो प्राप्ति से भी वंचित रहना पड़ता है . प्रकृति एवं परिस्थितियाँ देना चाहें और अवसर भी सहज सुलभ हो जाएँ ; तो भी पात्र एवं पात्रता के बिना व्यक्ति को वंचित ही रहना पड़ता है . इस दृष्टि से विचार किया जाये तो प्राणायाम के प्रयोग से योगसाधक सुपात्र बनता है , उसकी पात्रता विकसित होती है . यही पात्रता उसे धारणा के योग्य बनाती है .

युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव अपनी आध्यात्मिक वार्ताओं में कहा करते थे की प्रकृति पात्र को कभी वंचित नहीं करती है है और कुपात्र को कभी कुछ मिलता नहीं है . यदि संयोगवशात कभी कुछ मिल भी जाये तो मिला हुवा टिकता नहीं है . उनका कहना था की कुछ लोग धारणा को एकाग्रता मान लेते हैं , परन्तु ऐसा है नहीं . एकाग्र होने पर तो सिर्फ धारणा की झलक मिलती है . धारणा तो धारण करने की क्षमता है _ कुछ वैसे ही , जैसे कि विवाहित स्त्रियाँ गर्भ धारण करती हैं . उनके द्वारा यह गर्भ धारण करना उनके गर्भाशय के शुद्ध और स्वस्थ होने की क्षमता पर निर्भर करता है . बस , इसी तरह योगसाधक के चित्त को भी शुद्ध एवं स्वस्थ होना चाहिए .

चित्त , चिन्तन एवं चेतना में  जब रजोगुण छाया रहता है तो वासनाएं , कामनाएं एवं लालसाएं पूरे अस्तित्व में हावी रहती हैं . संशय , संदेह एवं भ्रम का जाल भी रहरहकर कसता व जकड़ता रहता है . ऐसी अवस्था में चित्त धारण तो करता है , पर निषेधात्मक एवं नकारात्मक सत्यों को प्रकाशित करने वाली बात उसे समझ में नहीं आती . सद्विवेक एवं सद्ज्ञान उसे आडम्बर लगते हैं . सारा समय स्वार्थ और अहंकार पूरा करने के लिए सोचते व जुगत लगते बीतता है . इस अवस्था में जाग्रति तो है , पर दिशा नहीं है .

लेकिन जब प्राणायाम के प्रभाव से रजस व तमस की परतें टूटती हैं , तब स्थिति , अवस्था व दशा में चमत्कारी परिवर्तन होते हैं . जड़ता टूटती है , साथ ही वासनाएं , कामनाएं व लालसाएं भी तिरोहित हो जाती हैं . सद्ज्ञान , सद्विवेक स्वत: ही जागृत हो उठते हैं . उच्चस्तरीय व आध्यात्मिक जीवन के प्रति जिज्ञासा जगती है . योग साधक की अन्तश्चेतना परिपूर्ण रूप से प्रकाशित हो उठती है . तब मन धारणा की योग्यता पा लेता है . ऐसी अवस्था में मन माँ की भांति हो जाता है . माँ बच्चे को नौ महीने अपने भीतर धारण करती है . वह उसे बीज की भांति सम्भालती है . सम्भवत: इसीलिए शास्त्रों में स्त्री को धरती भी कहा गया है  . 
क्योंकि माँ बच्चे को धारण करती है , बच्चे के बीज को _ ठीक उसुई तरह , जैसे कि धरती वृक्ष के बीज को महीनों तक धारण करती है . जब बीज धरती में निश्चिन्त हो जाता है , तभी उसकी खोल टूटती है और वह अंकुरित होता है . कुछ इसी तरह सात्विक चित्त भी प्रकाश व पवित्रता को धारण करने के योग्य हो जाता है . वह उच्चस्तरीय धारणा के बीज को भी सहेजता है . तप , ज्ञान एवं भक्ति से उसे सिंचित करता है . इसी के साथ धारणा का भी परिपाक होता रहता है . तप , ज्ञान व भक्ति की साधना गहराने के साथ धारणा परिपक्व होती जाती है . परिशोधित प्राण उसे पुष्ट करता रहता है .__ अखंड-ज्योति *****


गुरुवार, 18 अगस्त 2011

मन का सामर्थ्य बढ़ाएं

मन का सामर्थ्य बढ़ाएं

                                               
                        

मन बड़ा ही चंचल एवं संवेदनशील होता है . 

मन में उठने वाला चिन्तन यदि नकारात्मक है तो व्यक्ति उदास और दुखी हो जाता है और यदि वह सकारात्मक है तो व्यक्ति का मन इन घटनाओं से जीवन का अनुभव ग्रहण करता है और जीवन के अग्रिम मार्ग को प्रशस्त करता है .

मन जितना संवेदनशील होता है , उतनी ही दूरी की तरंगों को महसूस करता है . अधिकतर लोगों का मन अपने परिजनों से इतना जुड़ा होता है कि उनके सुख-दुःख , बीमारी के समय कष्ट-पीड़ा को वे जान जाते हैं .

यदि मन शांत , स्थिर , जाग्रत एवं संवेदनशील है , तब निश्चित तौर पर इन घटनाओं का पूर्वाभास किया जाता है . इसी के आधार पर अनेक व्यक्तियों ने भविष्य - वाणी की हैं और वे सत्य प्रमाणित हुयी हैं . ध्यानी , योगी व्यक्ति इन घटनाओं को अपने दिव्य चक्षुओं से देख भी लेते हैं और आवश्यक प्रयोग पीड़ा-निवारण एवं नव-सृजन हेतु करते हैं .

यदि मन कमजोर है तो जिन्दगी के कठिन झंझावातों से जूझ पाना आसन नहीं होता ;जल्दी निराशा होती है और अवसाद घेर लेता है . 

ऐसी अवस्था में जरूरत है मन को विकसित करने की , उसकी प्रतिरोधक क्षमता ( इम्यूनिटी ) बढ़ाने की , ताकि किसी भी कठिन या दुखद परिस्थिति में वह टूटकर गिरे नहीं


मन की क्षमता और सामर्थ्य बढ़ाने के लिए कुछ अभ्यास किए जा सकते हैं ; जैसे _ नियमित स्वाध्याय , सत्संग , स्व - संकेत _ अर्थात अच्छे विचारों के पूरे विश्वास के साथ दोहराना अपने सामर्थ्य को सक्षमता के पूर्ण बिंदु तक स्व -चिन्तन द्वारा प्रयास करना , पौष्टिक आहार , पर्याप्त श्रम एवं उपासना .

मन का सामर्थ्य बढ़ाने में उपासना की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है . अत: मन की क्षमता बढ़ाने के लिए उपासना , साधना और स्वाध्याय का सतत अभ्यास करना चाहिए . इससे मन शांत और स्थिर होता है और उसकी क्षमता में भी  आश्चर्यजनक वृद्धि होती है .****** _ AKHAND JYOTI
                                                                          
                                                                

याद करने की कला

याद करने की कला 
                                      

पढ़ना एक कला है . यह कला बताती है कि हम कैसे पढ़ें ? ताकि विषय की सही समझ पैदा हो सके और इसे हम ठीक - ठीक ढ़ंग से अभिव्यक्त एवं प्रतिपादित कर सकें . विद्यार्थी पढ़ता  है तो उसे विषय को समझ होनी चाहिए एवं शिक्षक पढ़ता है तो उसे बेहतर ढ़ंग से अभिव्यक्त करना आना चाहिए , परन्तु पढ़ना तो दोनों को पढ़ना पड़ता है . एक को अपनी परीक्षा के लिए पढ़ना पड़ता है तो दूसरे को उसे समझाने के लिए . यह भी आवश्यक है कि पढ़ाई में रूचि पैदा हो , जिससे पढ़ने का कार्य सुचारू रूप से चलता रहे . रूचि तब पैदा होती है जब विषय का उद्देश्य एवं औचित्य का ज्ञान हो .

रुचिपूर्वक पढ़ना तबी सम्भव हो पाता है , जब हमें उस विषय के उद्देश्य का पता हो कि आखिर हम उसे पढ़ क्यों रहे हैं और विषय का हमारे जीवन से क्या सम्बन्ध है ? जब तक यह बात स्पष्ट नहीं हो पाती कि विषय का औचित्य क्या है और उसकी हमारे निजी जीवन में क्या उपयोगिता है एवं आवश्यकता है ? तब तक विषय गधे की पीठ पर चन्दन कि लकड़ी को ढ़ोने के समान भारवत ही प्रतीत होता है . गधा चन्दन को ढ़ोता तो रहता है , परन्तु वह उसके महत्त्व एवं सुगंध से वंचित बना रहता है . ठीक इसी प्रकार हम भी विषय को ढ़ोते रहते हैं , पर हमें यह भी पता नहीं रहता कि जिस कक्षा में हम पढ़ते हैं , उसका पाठ्यक्रम क्या है और क्यों है ? सब कुछ एक बोझ-सा र्य्ची-हीन मालूम पड़ता है , परन्तु ठीक इसके विपरीत जब हमें विषय का लाभ एवं उपयोगिता की जानकारी हो जाती है तो रूचि स्वत: पैदा हो जाती है और हमारा मन पढ़ने में रमने लगता है .

पढ़ने के लिए हमें अपनी क्षमताओं का अनुभव होना चाहिए . ये क्षमताएं हैं _  आंतरिक , सीखना , अभिव्यक्ति एवं स्मरण -शक्ति . आंतरिक  क्षमता के अंतर्गत हमारी समझ कितनी है , यह आता है . इसमें यह देखने की बात है कि हमारी क्षमता इतनी है कि हम विषय का निर्वाह कर सकें या उसे समझ सकें . यदि हमारी क्षमता यह नहीं है कि हम गणित को समझ सकें और इसके उपरांत गणित की पढ़ाई करें तो विषय हमें कभी भी समझ में नहीं आएगा , क्योंकि इसके लिए हमें जितनी मानसिक ऊर्जा को इसमें लगाना पड़ेगा , उतनी हम नही लगा सकते . यदि हम इसमें अपनी मानसिक ऊर्जा नहीं लगायेंगे तो यह हमारे सिर के ऊपर से निकल जायेगा . हम गणित की किताब लेकर बैठे रहेंगे , पर पल्ले कुछ नहीं पड़ेगा . शिक्षक पढ़ाकर निकल जायेगा , पर हम अपनी ही उधेड़बुन में फंसे रह जायेंगे और कुछ भी समझ में नही आएगा .

विषय की समझ पैदा करने के लिए आवश्यक है कि हमारी मन:स्थिति उस विषय के साथ सम्बन्धित हो जाये और जैसे ही यह सम्बन्ध-सूत्र जुड़ने लगता है तो विषय की समझ पैदा होने लगती है . फिर हम विषय की गहराई के साथ-साथ उसके विस्तार एवं व्यापकता को जानने लगते हैं और इसके साथ ही हम एक विषय को अन्य विषयों के साथ जोड़कर देख सकते हैं एवं वह अपने जीवन में कितना उपयोगी एवं आवश्यक है , यह भी समझ सकते हैं . जब यह समझ पैदा हो जाएगी तो हमारी सीखने की क्षमता भी विकसित हो जाएगी . इसके बाद हम उस विषय को और अधिक गहराई से सीखने का प्रयास करेंगे .

सीखने की क्षमता विकसित हो जाने पर हम अपरिचित विषय के साथ भी गहरा तारतम्य जोड़ सकते हैं . यह कला आ जाने से हम अनेक नये विषयों को एक साथ सम्बन्धत करके समझने लगते हैं एवं तुलना कर सकते हैं . इससे हमारा बौद्धिक विकास होता है . विषय की मूल वस्तु एवं मुख्य बिन्दुओं का ज्ञान हो जाने से वह विषय सीखने और समझने में अत्यंत आसान हो जाता है . इस प्रकार हम उस विषय का बेहतर ढ़ंग से निर्वाह कर सकते हैं . फिर उसे यद् करने की आवश्यकता नहीं पडती है . याद तो तब करना पड़ता है , जब हमें विषय समझ में नहीं आता है . समझ आ जाये तो विषय स्वत: स्मृति-पटल पर अंकित हो जाता है . इसलिए उपनिषद कहता है कि विषय की बेहतर समझ पैदा करो , उसे याद नहीं करो .

सामान्य रूप   से विद्यार्थी अपने विषय को विभिन्न प्रकार से याद करता है और अपने दिमाग को उससे सम्बन्धित आंकड़ों से ठूंसने - भरने लगता है . दिमाग प्रश्नों का खजाना बन जाता है , पर परीक्षा के समय यदि किसी प्रश्न का उत्तर याद नहीं आया और उसके परिणाम स्वरूप तनाव पैदा हो गया तो फी स्थिति इतनी विपिन्न एवं भीषण हो जाती है  कि कहा नहीं जा सकता है . ऐसे हमारा दिमाग खिचड़ी बन जाता है और प्रश्नों का गलत उत्तर आने लगता है .

दिमाग की एक निश्चित ख़ास बनावट एवं बुनावट होती है . किसी चीज को कैसे याद किया जाये ? उसके लिए उसे उस बुनावट के संग तारतम्य रखना पड़ता है . इस तारतम्य में तब व्यतिक्रम आता है जब भावनात्मक असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती है . भावनात्मक स्थिरता में स्मरणशक्ति अपने चरम पर होती है , परन्तु अस्थिर अवस्था में यह अत्यंत खतरनाक एवं हानिकारक होती है . ऐसी  स्थिति में सोच-समझ , स्मृति एवं अभिव्यक्ति - क्षमता तहस -नहस हो जाती है और भारी क्षति होती है एवं कुछ भी याद नहीं रहता , सबकुछ क्षत - विक्षत खंडहर में परिवर्तित हो जाता है .  सारी मेहनत , ऊर्जा और समय का कोई मूल्य ही नहीं रह जाता है . अत: हमें भावनात्मक सम्बन्धों स्थिर बनाये रखना चाहिए , ताकि हमारी ऊर्जा , श्रम एवं समय विषय-वस्तु की समझ पैदा करने में नियुक्त हो सके .


विषय की समझ हो और उसमें रूचि पैदा हो जाये तो उसकी अभिव्यक्ति हो सकती है . इस सन्दर्भ में विद्यार्थी विषय को बेहतर ढ़ंग से प्रस्तुत कर सकता है और शिक्षक उसे प्रतिपादित कर सकता है और अभिव्यक्त कर सकता है . इस प्रकार पढ़ने में रूचि उत्पन्न होती है और हम ढ़ेर सारे नये विषयों को प्रति आकर्षित होते हैं एवं उसे पढ़ने लगते हैं .  इस तरह हम सामान्य पढ़ाई को रुचिकर बनाते हुवे स्वाध्याय के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं , जहाँ हमारे आंतरिक विकास की सम्भावनाएं खुल जाती हैं .

                                                                             
                    

सोमवार, 15 अगस्त 2011

गायत्री रहस्य

गायत्री रहस्य


                                         


इस ' भू: , भुव: , स्व: ' का ही संक्षिप्त रूप ' ॐ ' है . ध्वनि-मात्र का आदि मूल ' अ ' और स्थान कंठ है . मध्य ' उ ' और स्थान मुख का मध्य है . ' म ' सब संगीतमयी 

ध्वनियों का अंत है और सत्यत: ध्वनिमात्र का अंत है . क्योंकि यही एक अक्षर है जो मुख बंद करने पर भी बोला जाता है और इसका स्थान ओष्ठ है . मकार ही एक 

ऐसा अक्षर है जो समाप्ति का सूचक है अर्थात परमसुख का सूचक है . इसलिए यह ' स्व: ' का अर्थात परम सुख का सूचक है . इनमें से एक-एक अंश  का 
ही अभ्यास करें तो मनुष्य का पूर्ण परिपाक नहीं होगा . पूर्ण परिपाक करने वाला तो ' भूर्भव: स्व: ' का समन्वय है . इसलिए उस समन्वय को ' भर्ग: ' अर्थात 

ठीक परिपाक करने वाला कहा गया है . _
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रविवार, 14 अगस्त 2011

उपासना

उपासना

                                         

हम प्रभु की उपासना क्यों करना चाहते हैं ? इसका उत्तर सरल और स्पष्ट है क्योंकि प्रभु हम सबको प्यार करता है . वह जीवन भर हमारे साथ रहा है और सदा हमारे साथ रहेगा . सम उसकी समानता में एक बच्चे के समान हैं और वह हमारा पिता है .

वह हमारा पिता , बन्धु , सखा , माता , गुरु आदि है . उसका आभार हमें व्यक्त ही करना चाहिए . उसका धन्यवाद करना अपेक्षित है . वह हमारे अनंत मार्ग में सदा सहायक रहा है . इसलिए नहीं कि वह उसको धन्यवाद की अपेक्षा है , इसलिए नहीं कि वह क्या लालसा करता है कि सब प्राणी उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करें . इससे इसकी महत्ता में कोई वृद्धि नहीं होती -- परन्तु इससे हममें विनम्रता का विकास होगा , जिसकी अपने जीवन में उत्पन्न करने की महती आवश्यकता है . विनम्रता एक विशिष्ट गुण है , जो हममें होना चाहिए . वास्तव में हमें इस पर कुछ भी व्यय नहीं करना पड़ता . जैसे आप किसी से मिलते हैं तो प्यार भरे शब्दों में कुछ न कुछ सम्बोधन करते ही हैं .

वह हमारे निरंतर साथ रहा है . तो क्या बदले में हम उसको भूल जाएँ ? कम से कम वह तो हमें नहीं भूलता . हम उससे प्रेम के सूत्र में बंधे हैं . हमें ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए की असत से सत की ओर , अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर हम बढ़ते जाएँ . और यही सच्ची प्रार्थना है . इसी उपासना का सदा महत्त्व होता है. उपासना द्वारा उस प्रभु की स्तुति इसलिए करते हैं ताकि उसके गुणों का हममें समावेश हो जाये . हमारी उपासना सर्व मान्य होनी चाहियें ; वे स्वार्थ की भावना से रहित सर्वार्थ की भावना से आपूरित हों ......... तभी वह उपासना कल्याणमयी और हितकारी बन सकती है .   ..........

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

धन कमाइए पर उद्देश्य कुछ और हो

धन कमाइए पर उद्देश्य कुछ और हो 

                                                    

संसार में उचित जीवन यापन के लिए धन अनिवार्य है . धन  के आभाव में मनुष्य के सभी गुण निरर्थक से लगते हैं और समाज में जो सम्मान मिलना चाहिए वह भी नहीं मिल पाता . दरिद्रता का पहला अभिप्राय यह है की मनुष्य सम्पन्न व्यक्तियों में पहुंचकर संकुचित-सा अनुभव करता है . प्रत्येक समय हीनता के अनुभव के कारण उस व्यक्ति का तेज नष्ट हो जाता है . निस्तेज व्यक्ति को कोई भी और कभी भी दुत्कार देता है . इस प्रकार तिरस्कृत व्यक्ति उदास रहने लगता है और उदासीन व्यक्ति को धीरे-धीरे शोक घेर लेता है और शोकातुर व्यक्ति की बुद्धि ठीक से कार्य नहीं करती . परिणामत: बुद्धि-हीन व्यक्ति का विनाश हो जाता है . इसलिए निर्धन होना सब आपत्तियों का घर है .


कविवर कालिदास ने कहा है  _दरिद्रता ऐसा दुर्गुण है जो सभी गुणों को नष्ट कर देता है . वैदिक प्रार्थनाओं में कहा गया है _ ' वयं स्याम पतयो रयीणाम ' अर्थात हमारे समाज में सभी मनुष्य ऐश्वर्यशाली हों . वेद संसार में मानव-जीवन को सम्पन्न , सुखी और उत्तम गुण - कर्मों का केंद्र बनाने की प्रेरणा देता है . वेद के अनुसार धन संसार में बहुत कुछ है , किन्तु सबकुछ नहीं है . धन के ऊपर धर्म का न्यन्त्रण रहना चाहिए . जहाँ यह अंकुश नहीं रहता , वहां कभी न बुझने वाली विलासिता की आग जल उठती है .


धन को अपेक्षित महत्त्व तो देना ही चाहिए . इसमें दो बातों की सावधानी आवश्यक है _ पहली अर्जन - प्रक्रिया और दूसरी उपभोग की मर्यादा . धन को परिश्रम पूर्वक कमाना चाहिए , धन संग्रह का नाम नहीं अपितु उसके समुचित वितरण पर विशेष ध्यान देना चाहिए . ' तेन त्यक्तेन भुंजीथा : ' का सिद्धांत अपनाना चाहिए . धर्म , अर्थ . काम और मोक्ष के अनुसार क्रमश: धर्मानुसार अर्थ का उपार्जन और उस अर्थ को सतकार्यों में लगाना ही मोक्ष का द्वार हो सकता है .   ****** साभार _अखंड ज्योति