गुरुवार, 18 अगस्त 2011

याद करने की कला

याद करने की कला 
                                      

पढ़ना एक कला है . यह कला बताती है कि हम कैसे पढ़ें ? ताकि विषय की सही समझ पैदा हो सके और इसे हम ठीक - ठीक ढ़ंग से अभिव्यक्त एवं प्रतिपादित कर सकें . विद्यार्थी पढ़ता  है तो उसे विषय को समझ होनी चाहिए एवं शिक्षक पढ़ता है तो उसे बेहतर ढ़ंग से अभिव्यक्त करना आना चाहिए , परन्तु पढ़ना तो दोनों को पढ़ना पड़ता है . एक को अपनी परीक्षा के लिए पढ़ना पड़ता है तो दूसरे को उसे समझाने के लिए . यह भी आवश्यक है कि पढ़ाई में रूचि पैदा हो , जिससे पढ़ने का कार्य सुचारू रूप से चलता रहे . रूचि तब पैदा होती है जब विषय का उद्देश्य एवं औचित्य का ज्ञान हो .

रुचिपूर्वक पढ़ना तबी सम्भव हो पाता है , जब हमें उस विषय के उद्देश्य का पता हो कि आखिर हम उसे पढ़ क्यों रहे हैं और विषय का हमारे जीवन से क्या सम्बन्ध है ? जब तक यह बात स्पष्ट नहीं हो पाती कि विषय का औचित्य क्या है और उसकी हमारे निजी जीवन में क्या उपयोगिता है एवं आवश्यकता है ? तब तक विषय गधे की पीठ पर चन्दन कि लकड़ी को ढ़ोने के समान भारवत ही प्रतीत होता है . गधा चन्दन को ढ़ोता तो रहता है , परन्तु वह उसके महत्त्व एवं सुगंध से वंचित बना रहता है . ठीक इसी प्रकार हम भी विषय को ढ़ोते रहते हैं , पर हमें यह भी पता नहीं रहता कि जिस कक्षा में हम पढ़ते हैं , उसका पाठ्यक्रम क्या है और क्यों है ? सब कुछ एक बोझ-सा र्य्ची-हीन मालूम पड़ता है , परन्तु ठीक इसके विपरीत जब हमें विषय का लाभ एवं उपयोगिता की जानकारी हो जाती है तो रूचि स्वत: पैदा हो जाती है और हमारा मन पढ़ने में रमने लगता है .

पढ़ने के लिए हमें अपनी क्षमताओं का अनुभव होना चाहिए . ये क्षमताएं हैं _  आंतरिक , सीखना , अभिव्यक्ति एवं स्मरण -शक्ति . आंतरिक  क्षमता के अंतर्गत हमारी समझ कितनी है , यह आता है . इसमें यह देखने की बात है कि हमारी क्षमता इतनी है कि हम विषय का निर्वाह कर सकें या उसे समझ सकें . यदि हमारी क्षमता यह नहीं है कि हम गणित को समझ सकें और इसके उपरांत गणित की पढ़ाई करें तो विषय हमें कभी भी समझ में नहीं आएगा , क्योंकि इसके लिए हमें जितनी मानसिक ऊर्जा को इसमें लगाना पड़ेगा , उतनी हम नही लगा सकते . यदि हम इसमें अपनी मानसिक ऊर्जा नहीं लगायेंगे तो यह हमारे सिर के ऊपर से निकल जायेगा . हम गणित की किताब लेकर बैठे रहेंगे , पर पल्ले कुछ नहीं पड़ेगा . शिक्षक पढ़ाकर निकल जायेगा , पर हम अपनी ही उधेड़बुन में फंसे रह जायेंगे और कुछ भी समझ में नही आएगा .

विषय की समझ पैदा करने के लिए आवश्यक है कि हमारी मन:स्थिति उस विषय के साथ सम्बन्धित हो जाये और जैसे ही यह सम्बन्ध-सूत्र जुड़ने लगता है तो विषय की समझ पैदा होने लगती है . फिर हम विषय की गहराई के साथ-साथ उसके विस्तार एवं व्यापकता को जानने लगते हैं और इसके साथ ही हम एक विषय को अन्य विषयों के साथ जोड़कर देख सकते हैं एवं वह अपने जीवन में कितना उपयोगी एवं आवश्यक है , यह भी समझ सकते हैं . जब यह समझ पैदा हो जाएगी तो हमारी सीखने की क्षमता भी विकसित हो जाएगी . इसके बाद हम उस विषय को और अधिक गहराई से सीखने का प्रयास करेंगे .

सीखने की क्षमता विकसित हो जाने पर हम अपरिचित विषय के साथ भी गहरा तारतम्य जोड़ सकते हैं . यह कला आ जाने से हम अनेक नये विषयों को एक साथ सम्बन्धत करके समझने लगते हैं एवं तुलना कर सकते हैं . इससे हमारा बौद्धिक विकास होता है . विषय की मूल वस्तु एवं मुख्य बिन्दुओं का ज्ञान हो जाने से वह विषय सीखने और समझने में अत्यंत आसान हो जाता है . इस प्रकार हम उस विषय का बेहतर ढ़ंग से निर्वाह कर सकते हैं . फिर उसे यद् करने की आवश्यकता नहीं पडती है . याद तो तब करना पड़ता है , जब हमें विषय समझ में नहीं आता है . समझ आ जाये तो विषय स्वत: स्मृति-पटल पर अंकित हो जाता है . इसलिए उपनिषद कहता है कि विषय की बेहतर समझ पैदा करो , उसे याद नहीं करो .

सामान्य रूप   से विद्यार्थी अपने विषय को विभिन्न प्रकार से याद करता है और अपने दिमाग को उससे सम्बन्धित आंकड़ों से ठूंसने - भरने लगता है . दिमाग प्रश्नों का खजाना बन जाता है , पर परीक्षा के समय यदि किसी प्रश्न का उत्तर याद नहीं आया और उसके परिणाम स्वरूप तनाव पैदा हो गया तो फी स्थिति इतनी विपिन्न एवं भीषण हो जाती है  कि कहा नहीं जा सकता है . ऐसे हमारा दिमाग खिचड़ी बन जाता है और प्रश्नों का गलत उत्तर आने लगता है .

दिमाग की एक निश्चित ख़ास बनावट एवं बुनावट होती है . किसी चीज को कैसे याद किया जाये ? उसके लिए उसे उस बुनावट के संग तारतम्य रखना पड़ता है . इस तारतम्य में तब व्यतिक्रम आता है जब भावनात्मक असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती है . भावनात्मक स्थिरता में स्मरणशक्ति अपने चरम पर होती है , परन्तु अस्थिर अवस्था में यह अत्यंत खतरनाक एवं हानिकारक होती है . ऐसी  स्थिति में सोच-समझ , स्मृति एवं अभिव्यक्ति - क्षमता तहस -नहस हो जाती है और भारी क्षति होती है एवं कुछ भी याद नहीं रहता , सबकुछ क्षत - विक्षत खंडहर में परिवर्तित हो जाता है .  सारी मेहनत , ऊर्जा और समय का कोई मूल्य ही नहीं रह जाता है . अत: हमें भावनात्मक सम्बन्धों स्थिर बनाये रखना चाहिए , ताकि हमारी ऊर्जा , श्रम एवं समय विषय-वस्तु की समझ पैदा करने में नियुक्त हो सके .


विषय की समझ हो और उसमें रूचि पैदा हो जाये तो उसकी अभिव्यक्ति हो सकती है . इस सन्दर्भ में विद्यार्थी विषय को बेहतर ढ़ंग से प्रस्तुत कर सकता है और शिक्षक उसे प्रतिपादित कर सकता है और अभिव्यक्त कर सकता है . इस प्रकार पढ़ने में रूचि उत्पन्न होती है और हम ढ़ेर सारे नये विषयों को प्रति आकर्षित होते हैं एवं उसे पढ़ने लगते हैं .  इस तरह हम सामान्य पढ़ाई को रुचिकर बनाते हुवे स्वाध्याय के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं , जहाँ हमारे आंतरिक विकास की सम्भावनाएं खुल जाती हैं .

                                                                             
                    

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