जहाँ गुरु से शिष्य का गौरव बढ़ता है , वहां अच्छे एवं योग्य शिष्य से गुरु को भी प्रतिष्ठा की उपलब्द्धि होती है । स्वामी दयानन्द भी योग्य गुरु की तलाश में वर्षों तक नगर -नगर और वन-वन भटकते रहे । अनेक स्थान पर विचरण करने के बाद ही मथुरा में गुरु विरजानन्द मिल सके । स्वामी दयानन्द को जहाँ सच्चे गुरु का बोध हुवा , वहां प्रज्ञा -चक्षु विरजानन्द को दयानन्द के रूप में सही दृष्टि ही मिल गयी । वास्तव में हर गुरु को एक अच्छे शिष्य की तलाश होती है ।
बिना योग्य शिष्य के गुरु स्वयं को अधूरा समझता है । यदि उन्हें योग्य शिष्य मिल जाता है तो उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे उनका जीवन सफल हो गया हो । एक अच्छे शिष्य की खोज ही उनकी गुरु-दक्षिणा हो जाती है । ठीक उसी प्रकार भक्त और भगवान का स्थान है । जहाँ भक्त भगवान की खोज में रत रहता है , वहां भगवान भी प्रिय भक्त असीम स्नेह बरसाता है । सच्चे भक्त भगवान को अत्यधिक प्यारे होते हैं। भगवान भी भक्त की सच्ची पुकार सुनकर व्याकुल हो जाते हैं । यह भक्ति की निर्मल धारा ही भक्त और भगवान के सम्बन्ध को अत्यधिक व्यापक और अभिन्न बना देती है ।
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