शनिवार, 21 मई 2011

कामना एवं कान्ति

' कामना एवं कान्ति '




' कामना एवं कान्ति ' शब्द एक ही धातु से व्युत्पन्न हैं । कामना अर्थात इच्छा मन पर आधारित है तथा मन को साधुता , पवित्रता व निश्छलता पर कान्ति की स्थापना करती है । कामना का प्रादुर्भाव मन में होता है और कान्ति मन की सकारात्मक साधना का परिणाम है । कामना स्वयं उत्पन्न नहीं की जा सकती , केवल पूरी की जा सकती है । कान्ति का मूल कामना है , क्योंकि कामना ही अंतत: कर्म में परिवर्तित होती है । कर्म के साथ उत्पन्न राग और द्वेष आदि दुर्भाव मन में अहंकार की उत्पत्ति करते हैं । इन पर विजय प्राप्त करने के लिए धैर्य के कान्ति का विकास सम्भव है । धृति से विवेक , विवेक से ज्ञान , ज्ञान से प्रज्ञा तथा इसके अनन्तर कान्ति की प्राप्ति होती है ।

जिस प्रकार शुद्ध कर्म-क्षेत्र व्यक्ति को ओजस्वी बनता है , उसी प्रकार कामना की शुद्धता -व्यापकता व उदारता कान्ति की सृष्टि करता है ।
यह कान्ति ओज के रूप में मनुष्य के मनोभावों की सूचना देती है । जिसका मन जितना निर्मल होता है , उसकी कान्ति उतना अधिक दूसरे व्यक्ति को आकर्षित करती है । देवों पर महापुरुषों का आभा - मंडल कान्ति की व्यापकता का सर्वोत्तम उदाहरण है । इसके विपरीत दुश्चरित्र -दुर्जन का न तो कोई आभा-मंडल होता है और न ही कान्ति ।

कामना की उत्तरोत्तर साधना से अर्जित कान्ति मन का पोषण करते हुवे उसे तुष्ट करती है । जिसके मन
में ' अयं निज: परोवेति ' का भाव नहीं रहता , ' वसुधैव कुटुम्बकं ' का भाव रहता है । ऐसा उदारमना व्यक्ति दया , स्नेह एवं करुणा का प्रतीक बन जाता है । उसे स्वयं के सुख की अपेक्षा दूसरों के सुख से अतिशय आनन्द की अनुभूति होती है । जैसे-जैसे यह समष्टि का भाव बढ़ता है वैसे ही कर्म की शुद्धता के प्रति सतर्कता बढ़ती जाती है । परिणामत: मन की शुद्धता के प्रति आश्वस्त व्यक्ति रंग-रूप के अस्थायी आकर्षण से मुक्त होना चाहता है । ऐसी स्थिति में कामना का स्तर भी बाह्य भौतिक सुखों की प्राप्ति की अपेक्षा अंत:करण की साधना में रत होता जाता है । कामना ही कान्ति को उत्पन्न करके व्यक्ति को प्रकाशित करती है । अत: इन दोनों शब्दों के अर्थ की साधना करनी चाहिए ।******

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