सोमवार, 2 मई 2011

मृत्यु को सुखद बनाएं

मृत्यु  को सुखद बनाएं 




मृत्यु जीवन का शाश्वत सत्य है । इसे कैसे सुखद बनाया जा सकता है , जिससे भावी जीवन उन्नत व समृद्ध बन सके । दैवीय शक्तियाँ हमारे जीवन को उन्नत बनाने में सदा सहयोग करती हैं । अज्ञानवश मनुष्य स्वयं ही अपना पतन कर लेता है । जिसके लिए प्रकृति बिलकुल भी जिम्मेदार नहीं है । मृत्यु के बाद और पुनर्जन्म के पूर्व जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार स्वर्ग-नर्क की अनुभूति करता है ।यह अन्तराल का समय है , जहाँ जीवात्मा अपने स्थूल शरीर को त्याग कर मन एवं वासनाओं सहित अपने कारण और सूक्ष्म शरीरों में विद्यमान रहता है ।

अन्तराल के समय न जीवात्मा का विकास होता है और न ही स्थूल शरीर के अभाव में वह वासना-पूर्ति कर सकता है , जिस कारण वह बड़ी वेदना अनुभव करता है । वह पुन: स्थूल शरीर धारण करने की इच्छा करता है , किन्तु विधान के अंतर्गत निश्चित अवधि के बाद ही उसे अपने कर्मानुसार स्थूल शरीर प्राप्त होता है । तब तक उसे अन्तराल में भटकते रहना पड़ता है । विषयों के प्रति वासना का होना ही जन्म-मरण के चक्कर में डालता है । वासना ही कामनाओं की पूर्ति -आपूर्ति राग-द्वेष और सुख-दुःख के बंधन का कारण है ।

अतीत की सुखद स्मृतियों के कारण स्वर्ग की भावनाओं का और दुखद स्मृतियों के कारण नरक का अहसास जीवात्मा को अन्तराल के काल में होता है । स्वर्ग भी एक वासना है , अत: वह भी जीवात्मा की सर्वोपरि स्थिति नहीं है । स्वर्ग भी बंधन है । इससे ऊपर की स्थिति मुक्ति की है , जिसमें जीवन सम्पूर्ण भोगों एवं विषय वासनाओं से मुक्त होकर अपनी स्वतंत्र स्थिति का अनुभव करता है । यही आत्म अनुभूति है , निजानन्द है । इससे भी ऊपर की स्थिति भक्ति की है , जिसमें जीवात्मा पूर्ण समपर्ण भाव से ' परम आत्मा ' के शरणागत होकर प्रभु-प्रेम का आनन्द पाता है । प्रभु-प्रेम के अनंत , नित -नव रस का आस्वादन कर जीवात्मा कृत-कृत्य हो जाता है । ऐसे उन्नत , विकसित जीवात्माओं का पुनर्जन्म ईश्वरीय कार्यों के लिए महान वैज्ञानिक , कलाकार , संत , समाज-सुधारक आदि के रूप में समय-समय पर होता रहता है ।********

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें