सोमवार, 23 मई 2011

रैन बसेरा

रैन बसेरा



यह दुनिया एक रैन बसेरा है । महत्त्वपूर्ण बसेरा नहीं , अपितु नींद है । नींद नहीं आनी तो नहीं आनी । चाहे स्वर्ण-शैया हो या मोती-माणिक की चादरें और देह करवटें बदलती-बदलती ऊब जाती है । 

परिजन जीवन-यात्रा की रेल में अंग-संग बैठे हुवे सहयात्रियों की तरह अपने होते हुवे भी अपने नहीं होते । क्योंकि उनकी सम्बद्धता कुछ निही स्वार्थों व संचित कर्मों के अनुसार अलग-अलग होती है । उनका गन्तव्य और मन्तव्य भी उसी अनुपात में भिन्न-भिन्न होता है । कोई कहीं उतरता है और कहीं अन्य स्तन पर उतरता है ।


जीवन-यात्रा की खाली रेल में जब सवार हुवे तब भी अकेले चढ़े थे । खाली रेल से जब भी उतरेंगे तब भी अकेले ही उतरेंगे और जीवन रेल को खाली ही छोड़ना होगा । इस आकर्षण जगत में असंख्य पालक -पिता के होने पर भी हर मनुष्य का सत्यमेव पिता एक ही है । यही परमपिता है और वही परमपिता ही उसके लिए चिंतित रहता है । सम्पूर्ण चराचर सृष्टि का एक ही परमपिता है , जो सर्वशक्तिमान ईश्वर है । रैन बसेरे तो उस महायात्रा के क्षणिक विश्राम-स्थल मात्र हैं । पहुंचना तो बसेरों का वह आखिरी पड़ाव है , जहाँ से तृष्णाओं एवं कामनाओं की इस जगत-यात्रा में पुनरावृति न हो । हम उस पिता की चिंता न करें और वह परमपिता हमारी चिंता निश्चित रूप से करेगा ही ।&&&&&&&&&&&&&&&&&&&&

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