रविवार, 15 मई 2011

कृतज्ञता

कृतज्ञता  





कृतज्ञता से अभिप्राय है किसी के उपकार को मानना ।  मनुष्य के अलावा अन्य सभी जीव भोग योनि में आते हैं अर्थात उन्हें केवल पूर्व योनियों में किए गये कार्य के आधार पर भोग करने का अधिकार प्राप्त है , लेकिन मनुष्य योनि में भोग और योग दोनों संभव हैं । एक ओर जहाँ इस जन्म के कर्मों तथा पूर्व जन्मों के प्रारब्ध में प्राप्त कर्मों का भोग करना होता है , वहीँ हम ज्ञान कर्म और भक्ति के द्वारा मोक्ष -मार्ग की ओर अग्रसर हो सकते हैं । इसके लिए हम परमेश्वर के कृतज्ञ हैं । प्रभु के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए उनकी निकटता जरूरी है , जिसके लिए प्रात: सायं दोनों समय उपासना करनी चाहिए ।

हम परमेश्वर के प्रति ही नहीं , अपितु उन सभी जीवों के प्रति आभारी हैं , जिनके कारण हमें संसार में सुखमय जीवन बिताने में सहायता मिलती है । प्रकृति से प्राप्त सूर्य , चन्द्रमा व सभी नक्षत्रों की आकर्षण -शक्ति के आधार पर ही पृथ्वी अपने स्थान पर स्थिर रहते हुवे घूम रही है । सूर्य की ऊर्जा वनस्पतियों के माध्यम से हमें अन्न के रूप में प्राप्त होती है । इस प्रकार हमें प्रकृति के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए ।

कार्यों के करने के लिए मूल्य देना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि इन कार्यों के लिए कर्त्ता का उपकार मानना आवश्यक है। यह देखा जाता है कि पशु-पक्षियों में भी यह गुण पाया जाता है । किसी घायल पशु की सहायता करने उसकी आँखों में स्नेह के भाव देखे जा सकते हैं । जहाँ कृतज्ञता एक महान गुण है , वहीँ इसके विपरीत कृतघ्नता मानव-समाज को पतित करने वाला है । इसीलिए कहा गया है कि ' नास्ति कृतघ्नस्य निष्कृति ' अर्थात कृतघ्न का कहीं छुटकारा नहीं है ।

हमारा कर्त्तव्य है कि हम प्रभु के प्रति कृतज्ञ रहें तथा उसके द्वारा रचित सृष्टि के प्रति भी कृतज्ञ रहते हुवे पर्यावरण की रक्षा करें एवं अपने प्रति उपकार करने वाले के प्रति भी सदा कृतज्ञता का भाव रखें । कृतज्ञता का भाव बड़प्पन का प्रतीक है । यह सद्गुण यदि हम में है तो हम दूसरे की आत्मीयता को आसानी से पा सकते हैं ।******

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