रविवार, 22 मई 2011

जीवन को आत्म-कल्याण


जीवन को आत्म-कल्याण


अरे भई , यह शरीर भी एक जेल है ओर इसमें यह आत्मा युग-युगों से कैद है ।  एनी जेल में पहुंचा दिया जाता है । वहां कुछ समय रहकर वह अपने कुकर्मों की सजा भोगता एवं मार खाता है । वह पुलिस वालों के डंडे ही क्या अपितु हंटरों के प्रहार सहन करता है और रोता -पीटता सर धुनते हुवे अपना समय पूर्ण करता है ।
इस शरीर रूपी जेल में कैद आत्मा भी कर्मों की सहन करता है और कभी नरक -गति में जा कर वहां के हंटरों की वेदना सहन करता है । कभी दैवगति की वासना में उलझ जाता है और कभी मनुष्य -गति के अहंकार रूपी घनों के प्रहार सहता है । अनंत गुण-वैभव से संयुक्त जीव हम क्यों निज प्रभुता को भूल कर व्यर्थ ही कष्ट सहन कर रहे हैं । यदि हम इस जेल से मुक्त होना चाहते हैं तो हमें अपराधिक प्रवृत्तियों से दूर रहना चाहिए । अशुभ पाप पूर्ण प्रवृत्तियों से मुख मोड़ कर शुभ एवं पुण्य युक्त क्रियाओं को प्रारम्भ करना चाहिए तथा अपने जीवन को आत्म-कल्याण और सर्व-कल्याण में प्रवृत्त करना चाहिए ।*******

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