शुक्रवार, 13 मई 2011

आत्म-बोध

आत्म-बोध



समस्त संसार में जड़-जंगम पदार्थों को अपने भीतर स्वयं को पहचानना व आधार स्थिर करना ही आत्म-बोध की क्रिया है , क्योंकि इस संसार में ' आत्मवत सर्व भूतेषु '  अर्थात सभी के अंदर आत्मस्वरूप परमात्मा को पहचानने की प्रवृत्ति उन्नति की ओर  अग्रसर करती है । 

जीवन में जब तक अहंकार की परत चढ़ी रहेगी तब तक अंदर बैठी वासनाएं , उस बोध के मार्ग पर जाने के पहले ही किसी प्रहरी के समान डेरा डालकर अपने जमावड़े में उलझा देगीं । वहीँ पर विचलित व्यक्ति उपयुक्त मार्ग को छोड़कर मोह रूपी नदी में कूद जाता है । मेरा एवं तेरा का भेद तथा वह स्वयं को ही ब्रह्म समझकर उलझे हुवे व्यक्तियों को उलझा देता है तथा स्वयं तैरकर उस दरिया से पार जाने सक्षम है और न किसी के पहुँचाने में सहयोग दे सकता है ।

यह मोह रूपी आवरण से ढ़का हुवा जीव संसार -रूपी सागर में घूमकर गिरता है , क्योंकि जो हम देखते हैं वह मात्र भौतिकता है । हमारी इन्द्रियां जब तक परवश में हैं तब तक सब कुछ नाशवान है , क्योंकि इन्हीं इन्द्रिय तृप्ति के लिए ही हम मोह के जाल में पड़े हैं । यह मोह शीघ्र तो छूटता नहीं है , इसे छोड़ने में अपने को समर्पण करना पड़ता है । तभी जीवन में भक्ति का नवीन अंकुरण होता है । अंकुरण के पूर्व जो भी बीज बोता है वह अपना सर्वस्व न्यौछावर करके मोक्ष प्राप्त करता है । स्वयं को पहचान कर परमात्मा द्वारा इस निर्मित इस प्रकृति एवं विश्व से समन्वय स्थापित करना मानव -जीवन का उद्देश्य होना चाहिए । इसी में जीवन की सुख-शांति एवं समृद्धि निहित है ।*****


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