अनादि काल से कर्म-संयोगी , विषयासक्त , इन्द्रिय आधीन , विभावों में गतिशील इस सांसारिक जीव की दृष्टि परांगमुखी होती जा रही है ।
साथ ही दूसरों ने हमारी वेदना को सांत्वना दे दी तो हमारा ह्रदय-कमल प्रफुल्लित हो जाता है और कहीं हमारी वेदना एवं दुःख के बारे में नहीं पूछा तो तो हम दुखी हैं । तथा हमारा ह्रदय -कमल मुरझा जा जाता है। अस्तु , हमारी यह दृष्टि कब तक बनी रहेगी और कब तक पर -जनों की भावना में उलझे रहेंगे । प्रत्येक द्रव्य एवं पदार्थ का कार्य स्वयं में स्वतंत्र है । जब हम पर के अनुसार कार्य नहीं कर सकते तो फिर पर को अपने अनुकूल कार्य करने की इच्छा क्यों करते हैं ?
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