गुरुवार, 19 मई 2011

' मुवा काल को खाई '

' मुवा काल को खाई '


अस्तु , जो हमारे ऊपर अनादि युगीन संस्कार छाये हुवे हैं , उनसे अनेक घाव हो गये हैं । उन पर विषय -वासना और राग-द्वेष आदि भावनाओं का विलय हो जाये । अर्थात हमारी हमारी वासनात्मक भावनाएं मर जाएँ और वे पूरी तरह से नष्ट हो जाएँ । एक तरह से इन दुर्भावनाओं की अंत्येष्टि ही हमारे लिए मरहम का कार्य कर सकती हैं और इस प्रकार हम युग-युगों तक तड़पती आत्मा का इलाज कर सकते हैं । अत: स्व-भाव एवं व्यवहार से अहंकार आदि दुर्भावनाओं को समाप्त कर अध्यात्म-भाव से स्वयं के प्रति समर्पित हो जाएँ अर्थात 'मर - हम ' से ही हम 'मरहम ' बन सकते हैं। एक बार मर कर ही हम मरहम को प्राप्त कर सकते हैं । कबीर के शब्दों में _ ' मुवा काल को खाई ' की स्थिति सत्य एवं सार्थक हो सकती है ।******



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