मंगलवार, 3 मई 2011

त्याग और दान

त्याग धर्म है और दान पुण्य है



त्याग एक शक्ति है , जो प्रत्येक द्रव्य को स्व-गुण धर्मों में नियोजित करती है । त्याग एक कला है , जो पतित को पावन  बना देती है । त्याग एक रसायन है , जो सम्पूर्ण विकारों को नष्ट कर सकती है । त्याग एक सोपान है , जिस पर आरूढ़ होकर मुक्ति-महल तक पहुंचा जा सकता है । त्याग एक परम विशुद्ध निर्मल परिणति है , जिसमे विकार की लेश मात्र भी स्थिति नहीं है ।

अस्तु , आज यह गुण , धर्म और शक्ति आवृत्त होने के कारण मंद पड़ गयी है पर अब भी का पूर्ण ह्रास नहीं हुवा है । तभी त्याग की भावना प्रत्येक मानव और प्रत्येक प्राणी में स्वत: उद्भूत रहती है । यह तथ्य स्पष्ट है कि त्याग की यह निर्मल धारा दान के रूप में प्रवाहित हो रही है । पर त्याग धर्म है और दान पुण्य है। किन्तु यह ऐसा पुण्य है , जो हमारी आत्मा को पवित्र बना देता है और धर्म का जागरण कर देता है । 


 यथार्थता तो यह है कि त्याग किया नहीं किया जाता हो जाता है । जब यह तत्व-दृष्टि जागृत होती है कि एक परमाणु भी मेरा नहीं है । मैं स्वयं मैं हूँ और पर तो पर ही है , तब उसके प्रति होने वाली आसक्ति स्वयमेव छूट जाती है । वस्तुत: अभ्यन्तर में विद्यमान असद प्रवृत्तियों का त्याग ही सर्वश्रेष्ठ त्याग है । आत्मीय गुण त्याग  और धर्म की चर्चा करते हुवे प्राय: दान को ही त्याग समझ लिया जाता है , पर इसमें बहुत अंतर है । दान के लिए दाता के पास भक्ति , विनम्रता , करुणा , दया आदि भावनाओं के साथ -साथ पदार्थ भी चाहिए । वह पदार्थ भी जड़ -अचेतन ही होगा । क्योंकि चेतन द्रव्य का त्याग नहीं किया जा सकता । जब हमारे पास पदार्थ होगा , तभी दूसरे के प्रति उपकार हो सकता है , यद्यपि इसमें भी भावना की ही प्रमुखता है ।


दूसरे के दुःख -दर्द को एवं उसकी आवश्यकता को न समझने वाला एक पाई भी देने में असमर्थ होता है । अन्यथा ' मेरा पेट हाऊ मैं न जानूँ काऊ ' वाली नीति सम्पन्न बहुत से लोग देखे जाते हैं । अन्य बात दान देने के लिए दो पात्रों की आवश्यकता है , परन्तु त्याग में पर की भावना का विमोचन किया जाता है।****





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