शनिवार, 7 मई 2011

शिष्टाचार ही शील

शिष्टाचार ही शील





स्वभाव में शील का महत्त्वपूर्ण स्थान है । शील को परिभाषित करना कठिन है । व्यावहारिक दृष्टि से शिष्टाचार ही शील है । शील के अंतर्गत बड़ों के प्रति आदर का भाव , छोटों के प्रति स्नेह तथा सुह्रिद्जनों के प्रति मैत्री का भाव समाहित है । इसमें संकोच , सौम्यता , शालीनता , उदारता आदि अनेक गुण हैं । 

शीलवान व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि जो उसे स्वयं के लिए प्रतिकूल जान पड़े , वह दूसरों के लिए न किया जाये अर्थात ' आत्मन: प्रतिकूलानि परेषाम न समाचरेत ' । स्वभाव की कोमलता , मन में सहनशीलता व उदारता , भूल स्वीकार करने में तत्परता तथा वाणी में मिठास _ ये शीलवान व्यक्ति के आभूषण हैं । भर्तृहरी ने शील को मनुष्य का भूषण बताया है _ ' सर्वेषामपि सर्वकारणमिदं शीलं परं भूषणम ' ।


 शीलवान की दृष्टि में विशालता , विचारों में दिव्यता और आचरण में उदारता पायी जाती है। श्री राम द्वारा पवित्र चरणों के स्पर्श से मुनि-पत्नी अहल्या के पत्थर की शिला से सुंदर शरीर धारण कर लेने पर तनिक अभिमान व्यक्त न कर स्वयं पश्चाताप करना , धनुष-भंग के बाद कुपित परशुराम के समक्ष विनम्रता पूर्वक क्षमा-याचना तथा वनवास दिलाने वाली कैकेयी के प्रति सहृदयता _ उनके शील-स्वभाव के उदाहरण हैं । यही नहीं , उन्होंने गीधराज जटायु के शरीर त्यागने पर स्वयं अपने पिता की भांति उनका अंतिम संस्कार किया और शबरी का आतिथ्य स्वीकारते हुवे उनसे मातृवत व्यवहार करना ही उचित समझा । संत कबीर की वाणी है _ ' सुख का सागर शील है , कोई न पावै थाव ' । निस्संदेह शील हमारे जीवन की बहुमूल्य निधि और कीर्ति का आधार-स्तम्भ है । ********

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें