बुधवार, 18 मई 2011

धर्माचरण

' धर्माचरण ' 



' धर्माचरण ' दो शदों _ धर्म और आचरण के संयोग से बना है । धर्म के मानवीय अस्तित्व को समझने के लिए उसके वास्तविक अर्थ को समझना अति आवश्यक है । ' महाभारत ' में कहा गया है जो समाज को धारण करने की शक्ति से युक्त होता है , वह धर्म है । धर्म की व्यापक अर्थ में व्याख्या करते हुवे कहा गया है कि जीवन में सम्पूर्ण उत्थान को ही धर्म कहा गया है । धर्म सामाजिक और पारमार्थिक उन्नति का एकमात्र हेतु है । वस्तुत: सर्व-कल्याण की भावना ही धर्म का मूल रूप है । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म की महती आवश्यकता होती है । धर्म हमें इहलोक और परलोक से सीधे जोड़ता है । धर्म वह साधु-साधन है , जो प्राणियों के ऐहिक अभ्युदय तथा परलौकिक नि:श्रेयस को सद्य:सिद्धि प्रदान करता है ।

मनुष्य का आचरण ही उसकी पवित्रता , वीरता -कायरता का परिचायक होता है । व्यक्ति का आचरण उस दर्पण के समान होता है , जिसमें वह स्वयं अपने प्रतिबिम्ब को देख सकता है । व्यक्ति का उत्कृष्ट आचरण उसके उन्नत चरित्र को उजागर करने में सहायक होता है । धर्म एवं आचरण का सम्बन्ध अनन्य है । वह धर्म जो आचरण को महत्त्व नहीं देता तो वह अपने लक्ष्य को प्रापर करने में अक्षम रहता है । धर्म में सदाचार के महत्त्व को और गौरव को नकारा नहीं जा सकता ।

आचरण धर्म के प्रत्येक क्षेत्र में समाजोत्थान की तुला के समान माना जाता है । जब व्यक्ति धर्माचरण से युक्त होता है तभी मानव-समाज को उन्नत और आदर्श दिया जा सकता है । कोई भी व्यक्ति शास्त्रों के अध्ययन मात्र से विद्वान् नहीं बन जाता , अपितु उसे अपने जीवन में आचरण के माध्यम से उतातना आवश्यक होता है । सत्य बोलने वाले व्यक्ति तो अनेक हो सकते हैं , लेकिन 'सत्य ' को अपने आचरण में उतारने वाले बहुत कम ही होते हैं । मन, वचन और कर्म से सत्यता के बिना ' धर्माचरण ' फलदायी नहीं हो सकता है । धर्माचरण का आश्रय लेने वाला व्यक्ति ही ओजस्वी , तेजस्वी और मनस्वी होता है ।*****


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें