इच्छाओं को सुरसा की तरह न बढ़ाओ
इच्छाएं इतनी अधिक बढ़ जाती हैं की उनकी पूर्ति सहज ही सम्भव नहीं है । इच्छाओं की पूर्ति के चक्कर में जीवन ही समाप्त होने लगता है और इच्छाएं पर समाप्त नहीं हो पातीं । कहा भी गया है कि _ ' वासानि न जीर्णा: अपितु वयमेव जीर्णा: ' । हम नष्ट होते जाते हैं , पर वासनाएं नष्ट नहीं हो पाती हैं । इन न नष्ट होने वाली इच्छाओं को ही तृष्णा कहा गया है ।
इच्छाएं इतनी अधिक बढ़ जाती हैं की उनकी पूर्ति सहज ही सम्भव नहीं है । इच्छाओं की पूर्ति के चक्कर में जीवन ही समाप्त होने लगता है और इच्छाएं पर समाप्त नहीं हो पातीं । कहा भी गया है कि _ ' वासानि न जीर्णा: अपितु वयमेव जीर्णा: ' । हम नष्ट होते जाते हैं , पर वासनाएं नष्ट नहीं हो पाती हैं । इन न नष्ट होने वाली इच्छाओं को ही तृष्णा कहा गया है ।
' तृष्णा ' को रेखांकित करने के लिए योग-दर्शन में ' अपरिग्रह ' का नाम दिया गया है । अपरिग्रह का अर्थ है किसी भी संसारी वस्तु को संयमित रूप से ग्रहण करना । जितनी आवश्यकताएं हम बढ़ाएंगे उतनी ही समस्याएं बढ़ेंगी। हमें अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखने का प्रयास करना चाहिए । तृष्णा का अर्थ है एक ऐसी तृषा जो न शांत हो । जो लगातार ही बनी रहे । तृष्णा हमारी बुद्धि को भ्रष्ट कर विवेक-शून्य बना देती है ।********
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