मंगलवार, 3 मई 2011

पग-पग पर गरल

पग-पग पर गरल

साधनहीन मनुष्य के ह्रदय में शुद्ध भावना नहीं होती है । क्रिया और कर्म का सुंदर समन्वय जब होता है तब भाव उत्पन्न होता है । चिकित्सक से श्रेष्ठ अपने किसी डाक्टर मित्र की कोई बात लोग इसलिए नहीं मानते क्योंकि वह कोई बड़ा शुल्क नहीं मांगता । संस्कार सिखाने वालों से कोई प्रेम नहीं करता । पहचान के संकट से सरस्वती के पुत्र को पग-पग पर गरल का घूँट पीना पड़ता है । दिनकर ने कहा है _ ' पूज्यनीय को पूज्य मानने में जो बाधा क्रम है , यही मनुज का अहंकार है और उही मनुज का भ्रम भी है । योग्यता कहीं अपना गुण अपना गुण दिखाकर संसार को चकित कर देती है । झूठी प्रशंसा करने वालों को इत्र की सुगंध के स्थान पर स्वाद मीठा लगता है , जबकि होता है तीखा । जहाँ गुण की परख न हो वहां नहीं जाना चाहिए _ जाको जहाँ न गुन लहै , ताको तहां न ठांव । '



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