शनिवार, 30 अप्रैल 2011

तप आत्मा को निर्मल

तप आत्मा को निर्मल 



तप वह है _ जो  कर्म आत्मा को मल रहित निर्मल रूप प्रदान कर दे । साथ ही तप वह है जो विभव को स्वभाव में परिवर्तित कर दे और -फल से रहित कर अशुद्ध को शुद्ध बना दे । तप और ताप में जरा अंतर है । ताप जलाता है दूसरों को और तप जलाता है स्वयं के विकारों को । योग्य और उचित तापमान पाषणों को भी भेद देता है , धातुओं को भी गला देता है और जल जैसा बहा देता है । ताप मिलते ही कच्चा पक्के में परिवर्तित हो जाता है । समस्त वस्तुओं को भस्मसात करने की शक्ति ताप में होती है । अग्नि का सम्पर्क हुवे बिना या कहें की ताप मिले बिना भोजन भक्ष्य नहीं बनता एवं सुपाच्य नहीं बनता ।



स्वर्ण अग्नि के बिना शुद्ध नहीं हो  अग्नि में तप जाने पर लोहा भी जब किसी आकार विशेष में रूप  जाता है , तब उसके मूल्य और उसकी ताकत में कई गुना  वृद्धि हो जाती है । इसी प्रकार जो आत्मा तप रूपी अग्नि में शुद्ध हो जाता है।  वह भव-बन्धनों से मुक्त हो परमात्मा बन जाता है । इसके विपरीत जो तप रूपी अग्नि को देखकर भयभीत होते हैं , वे संसार में ही पड़े रहते हैं। 

 हम प्रायश्चित -पश्चाताप करने की अपेक्षा गलती को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं । तप आत्मा की अन्तरंग परिणति है । यह अन्तरंग उपलब्द्धि एवं अन्तरंग धर्म है । अन्तरंग तप की अभिव्यक्ति एवं उपलब्द्धि बाह्य तप है । स्वर्ण जब तपता है तो दमक उठता है , इसी प्रकार अन्तरंग में तप-धर्म की जाग्रति होती है तो विकार समन्वित आत्मा विकार रहित हो उठता है ।*******






हम आत्मा से नहीं अपितु शरीर से ममत्व कर रहे हैं और धर्म के ध्यान की अपेक्षा रौद्र -ध्यान में समय व्यतीत कर रहे हैं। व्यापारिक कार्यों में व्यस्त होने पर खाना न खाना , या कम खाना या या डाक्टर के कहने पर नीरस आहार ग्रहण करना और सफर करने पर एक ही आसन में लगातार आदि काया -क्लेश को सहना ये तप नहीं अपितु ये तप के आडम्बर मात्र हैं । तप की आवश्यकता से हमें परिचित होना चाहिए । तप से जहाँ आत्मोन्नति होती है , वहां परमार्थ की उपलब्द्धि भी होती है ।














































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