बुधवार, 20 अप्रैल 2011

चेतना का ध्यान , पर जड़ का नहीं

चेतना का ध्यान , पर जड़ का नहीं 






देव अनेक हैं परन्तु ईश्वर एक है । उस ईश्वर के नाम और स्वरूप अलग-अलग हैं । अभीष्ट किसी भी देव का चाहे पूजन करें , पर ध्यान तो ईश्वर का ही करना होगा ।  परमात्मा तो हर किसी में है और ध्यान के समय किसी और का चिन्तन नहीं करना चाहिए । चेतना का ध्यान करें , जड़ का नहीं । एक ही स्वरूप का बार-बार चिन्तन करें , मन को प्रभु के स्वरूप में स्थिर करने का प्रयास करें । एक ही स्वरूप का बार-बार चिन्तन करने से मन और चित्त शुद्ध होता है; परमात्मा के किसी भी स्वरूप को इष्ट मानकर उसका ध्यान करें ।



ध्यान की परिपक्व अवस्था ही समाधि है । चेतन में इसे जीवन-मुक्त माना गया है । समाधि दीर्घ समय तक रहने से जीते जी मुक्ति का आनन्द मिलता है । भगवान के ध्यान तन्मयता नहीं होगी तो संसार का ध्यान होता रहेगा और उसे छोड़ने का प्रयास करें । ध्यान के प्रारम्भ में संसार दिखाई देता है और यह अनुभव हर साधक का होगा । ध्यान में ईश्वर का दर्शन चाहे न हो कोई बात नहीं । परन्तु ध्यान में संसार के नर-नारी एवं सम्पत्ति अदि का ध्यान नहीं होना चाहिए । ध्यान में तन्मयता होनी चाहिए ।



प्रभु के एक अंग का चिन्तन करना ध्यान कहा जा सकता है और प्रभु के सर्वांग का चिन्तन करना धारणा है । परमात्मा के ध्यान से जीव ईश्वर में मिल जाता है और ध्यान करने वाला ध्येय में मिल जाता है । इसलिए वेदों में कहा गया है कि जो ज्ञानी है , जो योगी है वे सतत उस एक परमात्म-तत्व का ही ध्यान करते हैं । यह एक ही सत्य है और यह जगत झूठा , लेकिन यह जगत भी उसी का है । इस एक व्यापक को खोजने की नहीं , पहचानने और अनुभूत करने की आवश्यकता है । उसे पाने के लिए पहले सही पात्र और अधिकारी बनने की आवश्यकता है । वह तो सम्पूर्णता की ओर बाहें फैलाये स्वत: खड़ा है । दो कदम आगे बढ़कर तो देखो । हम सदा सत्य अर्थात प्रभु को अपने निकट रहने का अभ्यास करें ओर जीवन में आने वाली प्रत्येक परिस्थिति को इस आशा और विश्वास के साथ उन्हीं को समर्पित कर दें कि यह शरीर और जीवन उन्हीं को दिया हुवा है , हमें तो अपना कर्त्तव्य ईमानदारी एवं सत्यता से पालन करना चाहिए ।
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