मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

समय से पहले और भाग्य से अधिक नहीं

समय से पहले और भाग्य से अधिक नहीं 



संसार में संसरण करते हुवे तथा अविरल रूप से दुखों का उपार्जन करते हुवे या सुख-दुःख के झूले में झूलते हुवे भी प्रत्येक प्राणी के मन में एक ही आस है कि येन केन  कें प्रकारेण सुख-शांति की प्राप्ति हो । वह सुखी रहे , उसका परिवार और समाज सुखी हो , धन-धान्य से परिपूर्ण हो।   उसका व्यापर अच्छा चले , उसकी दूकान अच्छी हो , उसका मकान अच्छा हो और ईमानदार -वफादार सेवक उसके आगे पीछे घूमते रहें । उसके पुत्र आज्ञाकारी हों तथा पढ़-लिखकर सुयोग्य बनें । उसकी पत्नी आज्ञा पूर्ण रूप से पालन करे । कहने का तात्पर्य है कि मैं और मेरे के मध्य उलझा हुवा प्राणी स्व एवं अपने लोगों की सम्पूर्ण उन्नति की कामना करता है ।

कहीं किसी प्रकार की कमी उसे सहन नहीं है और फांस की तरह हृदय में वेदना उत्पन्न होती रहती है । परन्तु इस बात पर कभी विचार नहीं किया कि जिसका जैसा होना है वैसा ही होगा , व्यक्ति स्वयं इसका कर्त्ता नहीं है । यदि उसके अनुसार कार्य होना होता तो इस विशाल संसार में दुःख का नामोनिशान नहीं होता । क्योंकि सभी अपने -अपने को स्वर्ग क्या अपितु मोक्ष दिलाने की कोशिश करते तथा दूसरों को नरक आदि दुर्गतियों में धकेल देते । स्वयं करोड़पति बन जाते और अपने दुश्मनों को दो कोड़ी का भी नहीं रहने देते । सम्पूर्ण व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती । कोई भी किसी का कुछ भी करने को तत्पर हो जाता , पर ऐसा होता ही नहीं है । भाग्य से अधिक किसी को मिलता नहीं है तथा समय से पूर्व कार्य होता नहीं है ।&&&&&&&&& 

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