गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

मेरी एक तो उसकी....

 सुखी बनने की भावना और शांति की चाह 


इसका एक कारण यही नजर आता है की वह सुखी बनना चाहता है , पर बनाना नहीं चाहता । दूसरों को सुखी देखना उसे कदापि पसंद नहीं है । स्वयं के अतिरिक्त उसकी दृष्टि कहीं पहुँचती तो अपने प्रिय जनों तक और प्रियजनों की संख्या उसकी सीमित है । सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि स्व तथा अपने प्रिय जनों के अतिरिक्त अन्य किसी को सुखी तथा सुखाभास में आनन्द लेते हुवे देखकर वह परेशान हो उठता है ।





सत्य यह है कि स्वयं के दुःख से अधिक वह दूसरों को सुखी देखकर परेशान है । अस्तु , यह सांसारिक भोग-उपभोग की सामग्रियां तो पुण्य-पाप का फल है । आत्मिक गुण और सुख की तुलना इनसे नहीं करनी चाहिए । संसार के प्रत्येक प्राणी को सुखी बनने की भावना यदि प्रारम्भ कर दोगे तो वास्तविक सुख-शांति को प्राप्त कर सकोगे । अन्यथा राग-द्वेष के कीचड़ में ऐसे लिप्त हो जाओगे कि निकलना भी कठिन हो जायेगा । ' सर्वे भवन्तु: सुखिन: ' की भावना ही हमें सुखी बनाने का अमोघ अस्त्र है ।
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