सोमवार, 18 अप्रैल 2011

पानी में घड़ा है या घड़े में पानी

पानी में घड़ा है या घड़े में पानी 





जन्म ,जरा और मृत्यु भौतिक शरीर को सताते हैं , आध्यात्मिक शरीर को नहीं । ब्रह्म-बोध ही भक्ति है । भक्त ब्रह्म पद पर आसीन होते हैं । वे दिव्य कर्मों के विषय में सब कुछ जानने का प्रयत्न करते रहते हैं ; इस प्रकार भी समझा जाना चाहिए की एक घड़ा नदी में डूबा हुवा हो , उसमें पानी भर गया हो तो एकवाक्य में कहना कठिन है कि पानी में घड़ा है या घड़े में पानी है ।


आध्यात्मिक जीवन एक ऐसी नाव है , जो ईश्वरीय ज्ञान से भरी होती है । यह नाव जीवन के उत्थान एवं पतन के थपेड़ों से हिलेगी-डोलेगी , पर डूबेगी नहीं । पर मंझधार को जरूर पार कराएगी । उसकी पतवार उस मांझी के हाथ में रहती है , जो जगत का पालनहार है । वस्तुत: मनुष्य को समझने का प्रयत्न करना चाहिए कि उसका कुछ भी नहीं है । सारी दृश्य और अदृश्य वस्तुवें प्रभु की ही हैं । वही उसका स्वामी है । हम सिर्फ कर्म फल के आधार पर उपयोग कर रहे हैं । जिस समय प्रभु यह समझ लेंगे कि हमारी उपयोगिता समाप्त हो गयी है तो उसी समय वे हमें विमुक्त कर देंगे ।

संसार के स्वामी प्रभु जीवों से सेवा तब तक लेते रहते हैं , जब तक जीव उनके अनुरूप कार्य करता रहता है । तत्पश्चात उसके पूर्व के कर्म के अनुरूप दूसरी जीवात्मा में रखा जाता है , नहीं तो दर-दर भटकता रहता है । पुनर्जन्म का सिद्धांत इसी आधार पर वर्णित है । जीवात्मा के उच्च स्तर पर मनुष्य को कार्य करना होगा । बिना कर्मों के जीवों की आत्मा शुद्ध नहीं होती है । जब तक आत्मा शुद्ध नहीं होती है तब तक सकाम कर्म करते रहना होगा । मनुष्य को कोई शक नहीं होना चाहिए कि प्रभु पूर्ण है जीवात्मा मात्र उसका अंश मात्र है । तथा अंश अंशी के तुल्य कभी नहीं हो सकता । यदि मनुष्य स्वयं को पूर्ण समझे और ऐसे में उसे तब न किसी वस्तु की आकांक्षा ही रहेगी एवं न ही किसी प्रकार का शोक ही रहेगा ।&&&&&&&&






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