शनिवार, 16 अप्रैल 2011

सच्चे का बोलबाला

सच्चे का बोलबाला 


शास्त्र की दृष्टि से जैसा वस्तु स्वरूप है , उसको वैसा जानना , वैसा प्रतिपादन करना और वैसा समझना सत्य है ।  किसी को समस्याओं में उलझाने वाला न हो , अप्रिय न हो तथा हृदय को बेधने वाला न हो । वह सत्य किसी के जीवन में संकट के काँटों को बिखरने वाला नहीं हो , अपितु वह हित -मित -प्रिय हो ।
वेचन पद्धतियाँ हैं । इनके आधार पर सत्य का विभाजन नहीं हो सकता । सत्य तो अविभाज्य है और उसका दर्शन भी इन चर्म-चक्षुओं से नहीं होगा । उसके लिए अंत: चक्षु को उद्घाटित करने की आवश्यकता है ।

बचपन में बालक माता-पिता को ही सर्वस्व समझता है । समय व्यतीत हुवा , पत्नी को अर्द्धांगिनी मान उसे ही सबकुछ मानने लगा , सुख का साधन समझने लगा , बच्चों में रम गया और शरीर को ही निर्मल स्वच्छ बनाने या सजाने-संवारने में जुट गया । यौवन के अभिमान में मदमस्त हो गया और धन-वैभव के बीच फंस गया । ज्यों-ज्यों काल-क्रम आगे बढ़ता गया पत्नी भी दृष्टि मोड़ने लगी , वैभव भी विदा हो गया , जिस शरीर पर इतराते- इठलाते थे उसकी दशा ही बदल गयी । दांत गिर गये , मुख पोपला हो गया , झुर्रियां पड़ गयीं और वह शक्तिहीन हो गया । स्वयं को शरीर स्वयं का भार हो गया और अंत में एक दिन इसे भी यही छोड़कर विदा हो गये ।


अस्तु , ऐसे इष्ट संयोग जब अनिष्ट में परिवर्तित हुवे तब हमने सोचा की संसार असार है । कोई किसी का नहीं है , सभी स्वार्थ के नाते हैं । पर क्या हम इस सत्य को स्वीकार कर पाए ? हम तो आज तक इन्हीं इष्ट-अनिष्ट पर्यायों में नहीं , द्रव्यों में है । पर्याय एक समय के लिए अपना रूप व्यक्त करती है और दूसरे समय में असत हो जाती है । सत्य इसके दूर है ।

विश्व धरा पर सत्य और असत्य पक्षों को स्वीकार करने वाले प्राय: भव्य आत्मा हैं । सत्यासत्य का निर्णय करने के लिए पहले पंचायत बिठाई जाती थी । राजतन्त्र में राजा की आज्ञा सर्वोपरी मानी जाती थी । पंचों को परमेश्वर समझा जाता था । जैसा निर्णय वह कर देते थे और वही सर्वमान्य होता था । आज की शासन प्रणाली में मजिस्ट्रेट का निर्णय सर्वोपरि रहता है । ग्राम , प्रदेश और केन्द्रीय स्तर पर अनेक न्यायालयों की स्थापना हो चुकी है व हो रही है । इन सभी के पीछे उद्देश्य सत्य-असत्य का अन्वेषण करना ही है । अस्तु , इन न्यायालयों में न्याय मिले या न मिले अथवा वहां सत्य का साक्षात्कार हो भी या न हो । यदि होगा भी तो किसी घटना अथवा अपराध में अपराधी तथा निरपराधी की खोज हो जाएगी , परन्तु यह सत्य का साक्षात्कार नहीं होगा । यह तो मात्र उस सम्बन्धी सत्य -असत्य का निर्णय मात्र है । फिर भी यह सत्य के अस्तित्व की ध्वजा को विश्व में फहरा अवश्य रहा है ।


असत्य को दूध -पानी की भांति भिन्न-भिन्न दर्शाने के लिए न्यायाधीश की दृष्टि होना आवश्यक है । वस्तु तथ्य की अंतर गहराई में प्रवेश पाना जरूरी है । सागर में गहराई तक गोते लगाने वाला ही रत्नों की उपलब्द्धि कर पाता है । इसी तरह अंतरात्मा में गोते लगाने वाला ही स्वानुभव का रस -पान कर सकता है और सत्य से साक्षात्कार कर सकता है । *********


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