गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

जीवन को सार्थक करना

जीवन को सार्थक करना  



विश्व  के समस्त जीवधारियों की अपेक्षा मनुष्य ही सृष्टिकर्त्ता की सर्वसर्वश्रेष्ठ रचना है । सामान्यत: मानव-जीवन एक 'जय-यात्रा ' है , जिसका शुभारम्भ जन्म होने और समाप्ति मृत्यु होने पर ही होती है । मानव-जीवन केवल भोग-विलास की वस्तु नहीं है और न ही किसी की व्यक्तिगत सम्पदा है । सच तो यह है कि प्रभु की अहैतुकी कृपा से मानव-देह प्राप्त हुयी है ।  ऐसी सोच वाले मनुष्य ईश्वर की कृपा से प्राप्त होने वाले आनन्द से सदैव वंचित रह जाते हैं । वस्तुत: मानव-देह केवल मानव-धर्म के उपयोग के लिए ही प्राप्त हुयी है ।प्रभु-प्रदत्त मानव-देह का सदुपयोग करते हुवे अपने जीवन को सार्थक करना उसका उद्देश्य होना चाहिए । 


महान आचार्य चाणक्य के अनुसार प्रभु ने मनुष्य को दो हाथ , दो पैर , दो आँखें , दो कान , मुंह और पेट देकर अपने ही 'अंश ' रूप में धरती पर भेज कर यह कामना की थी कि वह अपने हाथों से असहायों की सहायता करेगा । अपने पैरों से चलकर संतसान्निध्य एवं तीर्थाटन का सुख प्राप्त करेगा । अपने नेत्रों से प्राकृतिक सौन्दर्य एवं देवालयों में प्रतिष्ठित देवों का दर्शन करके स्वयं को धन्य करेगा ।कानों से धर्म - चर्चा सुनकर कृतार्थ होगा । अपने परिश्रम से अर्जित सात्विक और प्रभु प्रसाद से अपने उदर की पूर्ति करेगा , मुख से अधिकांश समय प्रभु - नाम उच्चरित करेगा । ******



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