गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

दुःख के कारण

दुःख के कारण 



सामान्यत: दुःख को पसंद नहीं किया जाता है । लोग समझते हैं कि पाप के फलस्वरूप अथवा ईश्वरीय कोप के कारण दुःख आता है , परन्तु यह बात पूर्ण रूप से सत्य नहीं है । दुखों का कारण पाप भी है । यह है तो ठीक , पर यह पूर्ण सत्य नहीं कि समस्त दुःख पाप के कारण ही आते हैं । बहुत बार ऐसा होता है कि मनुष्य दुखी अपने प्रारब्ध के कारण होता है । प्रारब्ध में वे सभी कर्म आते हैं , जिनसे पूर्व जन्म में हमने किसी को दुःख पहुँचाया होता है । दूसरा कारण क्रियमाण है । ये वे कारण हैं , जिनका फल प्राय: साथ-साथ या मनुष्य को इसी जन्म में भोगना पड़ता है । इसका तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है कि ईश्वर को जब किसी प्राणी पर दया करके उसे अपनी शरण में लेना होता है और कल्याण के पथ पर ले जाना होता है तो उसे भव-बंधन से एवं कुप्रवृत्तियों से छुड़ाने के लिए ऐसे दुखदायक अवसर उत्पन्न करते हैं , जिनकी ठोकर खाकर मनुष्य अपनी भूल को समझ जाये और उसका सच्चा भक्त बन जाये ।


सांसारिक मोह , ममता और विषय-वासना का चस्का ऐसा लुभावना होता है कि उसे साधारण इच्छा होने से छोड़ा नहीं जा सकता । एक हल्का -सा विचार आता है कि जीवन जैसी वस्तु का उपयोग किसी श्रेष्ठ कार्य में करना चाहिए ; परन्तु दूसरे ही क्षण ऐसी लुभावनी परिस्थितियाँ सामने आ जाती हैं , जिसके कारण यह विचार धूमिल पड़ जाता है और मनुष्य जहाँ का तहां आकर फिर से खड़ा हो जाता है । इस प्रकार के कीचड़ से निकलने के लिए भगवान अपने भक्त को झटका देते हैं । सोते हुवे को जगाने के लिए बड़े जोर से झकझोरते हैं । यह झटका ही हमें दुःख जैसा प्रतीत होता है । गम्भीर बीमारी , परमप्रिय स्वजनों की मृत्यु , विश्वसनीय मित्रों द्वारा अपमान या विश्वासघात जैसी दिल को चोट पहुँचाने वाली घटनाएँ इस लिए भी आती हैं कि उनके जबर्दस्त झटके के आघात से मनुष्य  तिलमिला जाये और सजग होकर इस संसार के मोह से तिलांजलि दे दे । भगवान अपने भक्तों को कष्ट देते ही इसलिए हैं कि जिससे वह समझ सके कि कौन उसके सच्चे भक्त हैं ?******

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