शनिवार, 23 अप्रैल 2011

क्षमा बढ़न को चाहिए

क्षमा बढ़न को चाहिए 




 'क्षमा ' शब्द सहनशीलता तथा अहंकार के त्याग का सूचक है । क्षमा के धरातल पर दो व्यक्तित्व उभरते हैं _ एक स्वयं आप और दूसरा एक सामने वाला । अहं के वशीभूत होकर जब हम अपनी गलती नहीं स्वीकारते तो क्षमा के विषय में संकोच करते हैं। इस पीड़ा की अनभूति हर मनुष्य को होती है । इसी प्रकार सामने वाला भी सोचता होगा कि हम क्षमा मांगें और वह क्षमा कर देगा । यह द्वंद्व निरंतर चलता है और इसका निराकरण क्षमा द्वारा हो जाता है ।

क्षमा-याचना और क्षमा-दान मानसिक वातावरण से सम्बद्ध है । वास्तव में क्षमा की अवधारणा स्वयं से प्रारम्भ होती है । हमें लगता है कि हम दूसरे को क्षमा करते हैं.  पर वास्तविकता यह है कि क्षमा की समस्त प्रतिक्रियाएं स्वयं पर लागू हैं । जैसे-जैसे हम इस क्षमाशीलता के मार्ग पर अग्रसर होते हैं तो इसके सु -परिणामों से अभूतपूर्व सुखानुभूति के साथ ही तनावमुक्त जीवन की प्राप्ति होती है । 


 क्षमा मानव जीवन का स्वर्णिम अध्याय है , यहाँ द्वैत स्वत: समाप्त हो जाता है और एकत्व की स्थापना हो जाती है । अत: क्षमा को वीरों का आभूषण बताया गया है । परिणामत: क्षमाशीलता शारीरिक संतुलन को नियंत्रित करती है ।&&&&&&&&&&&&

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