गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

ईश्वर-प्रेम





 हम आंतरिक रूप से ईश्वर को अपने जीवन का ध्रुव तारा बना लें । संसार में अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करते हुवे हम मानसिक रूप से अपने सभी कार्य ईश्वर के चरणों में अर्पित कर दें। ईश्वर वह शक्ति है , जो हमारे अस्तित्व को बनाये रखती है । ईश्वर पर विश्वास रखें कि वह हमें उन सारी वस्तुओं को प्रदान कर देंगे , जिनकी हमें अपेक्षा है ।

हम जो काम करें , एकाग्रता से करें । दिन भर में कुछ क्षणों के लिए ईश्वर के बारे में सोचें और इस प्रकार कहें _ ' हे प्रभु ! दर्शन दें । मेरे साथ रहें और प्रभु मुझे रास्ता दिखाएँ । प्रभु मेरी चेतना आपके साथ समन्वित हो जाये । ' ईश्वर के स्वरूप का एक पहलू भावातीत है _ निरपेक्ष ब्रह्म । तथा दूसरा रूप है _ जो ब्रह्मांड का संचालन कर रहा है । हमारा पहला कर्त्तव्य ईश्वर का ध्यान करना है । हम आंतरिक स्थिरता में लम्बे समय तक बैठें और ईश्वर से प्रार्थना करें ।

हमारी विपत्तियाँ भी सबसे अच्छी मित्र हैं और वे हमें ईश्वर की ओर मोड़ती हैं । जब विपत्तियाँ आती हैं , तब हम सोचने लगते हैं कि प्रेम करने वाला ईश्वर को हमारे साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था । पर ईश्वर-प्रेम में बिना किसी शर्त के स्वीकृति होती है । यदि मेरे प्रभु मेरे ऊपर से अपनी अनुकम्पा हटा भी लें , तो भी मुझे हार न मानकर उनकी सदैव प्रार्थना करनी चाहिए । हम प्रतीक्षा करते रहें ओर उस प्रभु को स्मरण करते हुवे परम भक्ति का परिचय दें ।

सच्चे प्रयास का फल सदा प्राप्त होता है । हम अपने मन में यह भाव न आने दें कि मैं इतना नगण्य हूँ ओर ईश्वर मेरी प्रार्थना नहीं सुनेंगे । हम संसार में रहें । लेकिन संसार का बनकर नहीं । अपनी रूचि केवल इतनी रखें कि हम अपने प्रत्येक काम को ईश्वर के लिए कर रहे हैं । कार्य करते समय यह निरंतर बोध रहना चाहिए कि हम यह सब अपने प्रभु के लिए कर रहे हैं । हम अपनी प्रशंसा पाने के लिए या अपनी पहचान बनाने के लिए यह सब नहीं करते हैं । हम ईश्वर के लिए काम करने से मिलने वाले आनन्द के लिए करते हैं ।**
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