शनिवार, 30 अप्रैल 2011

संयम अर्थात मर्यादित

संयम अर्थात मर्यादित 



संयम का अर्थ है संकुचित हो जाना और मर्यादा एवं सीमा में बंध जाना । परन्तु इसका आशय यह नहीं है कि हम अपने दायरे को सीमित कर संकीर्ण विचारधारों में बांधकर रह जाएँ और संकीर्णताओं के घेरे में बंध जाएँ और अंदर ही अंदर कुढ़ते रहें । यहाँ तो आकुलता से रहित साम्य परिणति के जागरण की बात है । अपने मनोबल को बढ़ाने की बात है । हमारे अन्तरंग का संसार और बाह्य संसार इतने विस्तृत हैं कि एक पल की भी शांति नहीं है । एक रूप से साम्राज्य तो है पर वास्तव में शक्ति नहीं है ।

संयम उसी शक्ति को जागृत करने की प्रेरणा करता है , जो स्वाभाविक है । हमारी कुछ सीमा सुनिश्चित होगी तो तो हम बाह्य के विकल्पों से बच पाएंगे । कछुवा स्वयं की सुरक्षा हेतु गर्दन को संकुचित कर लेता है । क्योंकि उसकी गर्दन पर प्रहार होने पर उसका मरण निश्चित है और पीठ पर प्रहार होने पर भी उसका जीवन सुरक्षित रहता है । इसी प्रकार हम अपनी इन्द्रियों और मन रूपी गर्दन को अथवा अंत:करण रूपी गर्दन को अंदर ही अंदर केन्द्रित कर लें और अपने में ही छिपा लें तो प्रतिकूलता रूपी असंयम के कितने भी प्रहार हमारे ऊपर होते रहें ; परन्तु हमारा जीवन सुरक्षित हो जायेगा । अपने जीवन की ओर से निश्चिन्त होने पर ही सम्यक शांति का स्रोत प्रस्फुटित होता है । संयम के अभाव में यह आत्मा स्वयं में रमण करने में असमर्थ ही है ।

संयम का साम्राज्य हमारे जीवन में उस तरह फैला हुवा है ; जिस तरह जल में तेल या घी डाल देने पर उसका विस्तार हो जाता है ओर सारे में फ़ैल जाता है । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि संयम दूध में जल की तरह समाविष्ट है । हमारा एक कदम भी बिना संयम के नहीं बढ़ पाता है । यदि एक पैर आगे भागने लगे ओर दूसरा पैर पीछे छूट जाये तो हम आगे नहीं बढ़ पाएंगे । भोजन करते समय भी एक-एक ग्रास क्रम -क्रम से शनै:-शनै: ही मुख में डालना होगा ओर उसे चबा-चबा कर ही लेना होगा । यदि एक साथ फटाफट मुंह में डाल देन तो वह विकृति का ही कारण बन जायेगा । यहाँ भी संयम अति आवश्यक है ।


खेत में बीज को बोने पर उसके साथ भी बड़े संयम की आवश्यकता होती है । भोजन के निर्माण में भी संयम की अत्यधिक आवश्यकता रहती है । समय पर फसल का आना भी संयम है । मकान या दुकान निर्माण में भी संयम की अति आवश्यकता है । समय-संयम का पूरा-पूरा ध्यान न रखने पर निर्माण किसी भी रूप में पूरा नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है कि प्रतेक क्षण में हर पग पर संयम रखने की आवश्यकता है । प्रकृति स्वयं संयम में ही बंधी है । हम भी स्वयं अपने को प्रकृति की ओर ले जाएँ , उसके साथ दुराग्रह न करें । अन्यथा हमारा पतन हो जायेगा और हम दुर्गतियों में फंस जायेंगे साथ ही हम अनंत दुखों में समाविष्ट हो जायेंगे ।

संयम का महत्त्व लौकिक और आध्यत्मिक दृष्टि से आवश्यक व अनिवार्य है । योग दर्शन में योग के आठ रूप बताये गये हैं । ये आठ रूप _ यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और समाधि हैं । इनमें से प्रथम पांच बहिरंग हैं और बाद के तीन अन्तरंग हैं । संयम की तो सभी में ही आवश्यकता है , पर बहिरंग की अपेक्षा अन्तरंग में इसके महत्त्व को विशेष रूप से स्वीकार करते हुवे धारणा , ध्यान और समाधि को त्रय-संयम का भी नाम दिया गया है ।*****

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