बुधवार, 27 अप्रैल 2011

मन को पकड़िए और चलिए

मन को पकड़िए और चलिए 




परमात्मा ने हमें माध्यम बनाकर संसार में भेजा है ,हमसे जुड़े लोगों को मदद करने के लिए । पिता यदि गलत आचरण करता है तो बेटे को शर्मिंदा होना पड़ता है और बेटे के गलत आचरण से पिता की प्रतिष्ठा दांव पर लगती है। हमें सांसारिक कर्त्तव्यों का निर्वहण पूजा की भांति करना चाहिए । क्योंकि पूजा का सम्बन्ध ईश्वर से है और कर्म समाज के लिए है एवं जिसे परमात्मा सम्पन्न कराता है । हमारा कुछ नहीं है , वह परमात्मा का है , वह जब चाहेगा ले लेगा । हम निष्काम भाव से कर्म करने में सफल होंगे । प्रभु की सृष्टि हर समय हमारे कर्मों पर रहती है । हम कोई भी कार्य प्रभु से छिपा कर नहीं कर सकते ।

प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में एक दूसरे की मदद करने में सक्षम हैं , इसके लिए धन की जरूरत नहीं है । जरूरत है केवल मन बनाने की । तन, मन, धन एवं विचारों से आप जरूरतमंदों की सहायता करने में सदैव समर्थ हैं । इस मार्ग पर चलकर तो देखो । आप अपने को अकेला नहीं पाएंगे , पुण्य कमाने वालों की कमी नहीं है । निस्वार्थ-भाव से की गयी सेवा खाली नहीं जाती । यह बात आचरण में लाने से अपना तो लाभ होता ही है और साथ जग भी लाभान्वित होता है । दूसरों को इस दिशा में आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है । अभी कुछ नहीं बिगड़ा है । सब कुछ अपने हाथ में है तथा मन बनाने की बात है और उस रास्ते  पर चल देना है ।

मनुष्य भौतिकता के वशीभूत होकर जीवन की जरूरतों को अनावश्यक बढ़ाता रहता है । लेकिन उसके समीप होते हुवे भी वह अपनी शाश्वत पूंजी को स्वार्थवश नजर अंदाज करता रहता है , जिसके परिणाम स्वरूप उसकी कीमत उसे उसी के द्वारा उत्पन्न की हुयी समस्याओं के रूप में चुकानी पड़ती है । यदि हमने तमाम भौतिक उपलब्द्धियों को एकत्रित कर लिया है और अंतस जीवन के शश्वत मूल्यों से खाली है तो सारी उप्लब्द्धियाँ निरर्थक रह जाएँगी । भौतिक उपलब्द्धियों की अंधी दौड़ से बचना चाहिए और मानवता के प्रति समर्पित होकर नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए ईमानदारी से प्रतिबद्ध हों ; मानव जीवन की सार्थकता इसी में निहित है । तथा जीवन का वास्तविक आनन्द इसी में है ।******

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