शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

सुख और दुःख

सुख और दुःख चक्र के समान परिवर्तित


हमें सुख और दुःख दोनों परिस्थितियों में प्रसन्नता का अनुभव करना चाहिए । जो कर्म फल त्याग कर कर्त्तव्य करते हैं तो वे सुख-दुःख से ऊपर रहते हैं । वे न तो विचलित होते हैं और न ही लिप्त होते हैं ।

प्रसाद की ये पंक्तियाँ _ ' दुःख कि पिछली रजनी बीच विकसता सुख का नव प्रभात ' जीवन के महाचक्र को स्पष्ट करती हैं । साथ ही यह भी कहा गया है कि ' चक्रवत परिवर्तन्ते सुखानी दुखानी च ' अर्थात सुख और दुःख चक्र के समान परिवर्तित होते रहते हैं । कभी सुख आता है तो कभी दुःख आता है। यह नियम शाश्वत ही चलता रहता है । परिवर्तन जीवन का शाश्वत नियम है । अत: हर परिस्थिति में तैयार रहना चाहिए । क्योंकि संगीत में जो महत्त्व आरोह का है , वही अवरोह का भी है । दोनों की संगति जीवन में संगीत के आरोह-अवरोह की भांति सुख-दुःख की है ।

अत हमें सदैव आशा-उषा के आगमन की प्रतीक्षा करनी चाहिए । जिन्होंने सहास त्यागा वे ही टूटे और बिखरकर इस मिट्टी में मिले । लेकिन यह मिट्टी तो जन्मदा रही है । यह अनेक बीजों एवं खनिज तत्वों की आधार है । यह परिवर्तन की आधार स्थिति है । इसका नियंता अनेक नामों और रूपों में रहकर अपरिवर्तित है। इसका परिवर्तन -सिद्धांत हमें निराशा में आशा , अवरोध में सक्रियता और स्वार्थ में सर्वार्थ को निर्देशित करता है। इसके विपरीत की परिस्थिति में वह अपनी सक्रियता से सब कुछ करके परिवर्तन का कारक -निवारक बनता है ।&&&&&
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