मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

तीर्थंकर वर्धमान महावीर

तीर्थंकर वर्धमान महावीर 

तीर्थंकर वर्धमान महावीर उन महापुरुषों में हैं , जो तीनों लोकों में त्रिकाल वन्दनीय हैं । वन्दनीय इसलिए नहीं कि वह राजपुरुष थे , बल्कि इसलिए कि उन्होंने राज-वैभव से मुंह मोड़कर संन्यास लिया । भोग की अपेक्षा त्याग को उत्तम समझा और वह सब छोड़ा जो उनके लिए सहज सुलभ था । उन्होंने इन्द्रिय-दमन का रास्ता अपनाया और सम्यक पुरुषार्थ से जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हुवे । इसलिए भी वे वन्दनीय हैं कि स्वयं के आत्मोत्कर्ष की साधना के साथ-साथ लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित हो स्वयम्भू तीर्थंकर हुवे और अपनी दिव्य देशना से समस्त प्राणियों के लिए शास्वत सुख प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया ।


जैन परम्परा में वस्तु के स्वभाव को ही धर्म कहा गया है । जैसे जल का स्वभाव शीतल है , वैसे ही आत्मा का स्वभाव असीम दर्शन , असीम ज्ञान , असीम शक्ति और असीम सुख है । वहां ईश्वर और ईश्वरत्व की अवधारणा भी भिन्न है । गुण की दृष्टि से ईश्वर एक है , किन्तु जन्म-मरण के बंधन से मुक्त प्रत्येक आत्मा ईश्वर है ।

जैन परम्परा के अनुसार ईश्वर न सृष्टि का रचयिता है और न सुख-दुःख का दाता । हर जीव की स्वतंत्र सत्ता है , वह अपने कर्मों का कर्त्ता है और उनके फल का भोक्ता है । महावीर -दर्शन का दूसरा सूत्र है अनेकांत ; जिसका अर्थ है सत्य के विभिन्न पहलुओं को समझना समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाना । आज का मानव -समाज अजीब मोड़ पर खड़ा है । एक तरफ भोग की होड़ है तो दूसरी ओर अतृप्त लालसा , भय और असुरक्षा की भावना । यह अंधी दौड़ हमें विनाश की तरफ ले जा रही है । अहिंसा , अनेकांत और अरिग्रह का सुगम रास्ता ही सुखमय और शांति पूर्ण समाज के लिए आशा की किरण है और भावी पीढ़ियों के लिए आश्वासन भी हो सकता है ।$$$$$$$$$$$

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