गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

मुझ से बड़ा न कोय

मुझ से बड़ा न कोय 




चाह की आग में जलता हुवा प्राणी राह नहीं खोज पा रहा है । उसकी परिग्रह की चाहना विशेष रूप से पद और धन के रूप में दृष्टिगोचर होती है । इनमें भी पद-प्रतिष्ठा की की आकांक्षा ही प्रमुख है । यद्यपि ये पद और प्रतिष्ठा अहंकार के द्योतक हैं , परन्तु मानव द्वारा सम्पादित कार्य प्राय: अहंकार की ही पुष्टि करने वाले हैं ।  दर्शन से अधिक प्रदर्शन में विश्वास करता है।


वह रात और दिन यही सोचता है की वह कैसे सबसे अच्छा दिखाई दे । यहाँ तक इसकी पूर्ति हेतु वह दान देता है , परोपकार करता है एवं पूजन-विधान करता है । वह धर्मशाला , विद्यालय , औषधालय आदि न जाने क्या-क्या बनाता है । इतने पर भी उद्देश्य की पूर्ति न होने पर मन ही मन चिंता की अग्नि में जलकर क्रोध करता है । यह स्थिति मात्र राजनेताओं की नहीं , समाज के नेताओं की नहीं अपितु धर्म नेताओं की भी हो रही है । एक दूसरे को नीचा दिखाकर स्वयं की प्रतिष्ठा कायम करने में लगे हुवे हैं ।

हमारा उत्थान दूसरों का उत्थान करने में ही है । दूसरों को नीचा दिखाने वाले तथा दूसरों को मिटने की भावना करने वाले स्वयं ही मिट गये । काल ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा । अत: निरंतर दूसरों के उत्थान की भावना कर तथा तथा सर्वोच्च पद को पाने की भावना मन-मन्दिर में संजोयें ।***

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